शाकाहार या मांसाहार
शाकाहार या मांसाहार
दिल्ली से इक जहाज उङा
मंजिल थी जाम्बिया, साउथ अफ्रीका
थे यात्री अनेक
और हम भी उसके यात्री थे एक
प्रवेश द्वार पर
रोजी ने किया स्वागत
और
उसे देखते हुए दो बार खा कर ठोकर
हम अपनी कुर्सी पेटीका में जा बंधे
अगल में देखा
तो शुक्ला जी, येऽऽऽऽ लम्बा तिलक लगाये
और बगल में देखा
तो डाक्टर अहसान अली, लम्बीऽऽऽ सी दाढी लिए
तशरीफ फैलाये पसरे थे
हम दोनों कि तरफ मुस्काये
और जहाज
जो हमारी मुस्कान के ही इंतजार में था
हवा में हो लिया......
थोड़ी देर में रोजी आयी
और हमनें शाकाहारी भोजन आर्डर किया
तो
शुक्ला जी व्यंगित मुस्कान दे कर बोले
क्या सिर्फ घास ही खाते हो
मैंने मुस्कुरा कर कहा
जी, मुझे लाश खाने का शौक नहीं है
ये सुनते ही
क्या शुक्ला जी, क्या अहसान मिंया और क्या रोजी डार्लिंग
सब के सब, मुझ पर लाल हो लिए
अली भाई बोले, क्या कहना चाहते हो
हम बोले...
मियां, मरे हुए शरीर को
अपने यहां तो लाश ही कहते हैं
बाकि जो समझना हो, समझ लो
और अपन ने तो, ये ही जाना है
कि लाश को कब्रिस्तान में
और
भोजन प्रसाद को जिव्हा पर सजना चाहिए
तो डाक्टर साहब बोले,
पर ये हमारे धर्म में है
तो हमने फरमाया
कि धर्म का स्पष्ट संदेश ये है कि
चांद को देखकर लम्बी उम्र की दुआएं मांगो
ना कि बेचारे बकरों को लम्बा कर दो
फिर मैंने पुछा, कि भाईजान
बकरे को अल्लाह ने नहीं पैदा किया क्या
जो पैग़म्बर हज़रत इब्राहीम के त्याग के शुभ दिन
तुम्हारी तो ईद उल अदा
और उस बेचारे की मौत
यद्यपि हजरत इब्राहीम द्वारा कुरान में इस्माइल की क़ुरबानी बताई गई है
पर आप ये बताइये
कि एक किंवदंती के आधार पर
हर साल
करोड़ों निरीह मूक प्राणियों की क्रूर हत्या
को धार्मिक कार्य मानना
कहाँ तक उचित माना जाए
जबकि उन्हीं हजरत इब्राहीम के अनुयायी
यहूदियों और ईसाईयों ने क़ुरबानी को धार्मिक रूप नहीं दिया है
जरा ये भी बताइये
कि, दयालु और कृपालु खुदा या अल्लाह
अचानक इतना हिंसक और रक्तपिपासु कैसे बन सकता है
कि वह जानवरों की कुर्बानियां लेकर खुश होने लगे
ये कैसा त्याग करते हो कि
मन व्यथित हो उठता है
और
अनुकंपा स्वयं कांप उठती है
कुर्बानी का मतलब होता है
स्वयं की बुराइयों को कुर्बान करना
ना कि अपने स्वाद को जीव हत्या करना.....
अब हमारा ज्ञान सुनकर
शुक्ला जी को
अपना जीभ का स्वाद खतरे में लगा
तो वो भी कुद पङे
बोले, ज्यादा बक बक मत करो
कोबला, मन्नत, बलि, पशुवध के बारे में
स्वयं वेदों में लिखा है
तो तुम कौन होते हो
बेवजह फालतू बकवास करने वाले
हमने पुछा, कि क्या लिखा है पंडित जी
तो शुक्ला जी बोले
एतद उह व परम अन्नधम यात मांसम (सत्पथ ब्राह्मण ११.४.१.३)
[अर्थात-सत्पथ ब्राह्मण कहता है, की जितने भी प्रकार के खाद्य अन्न हैं,
उन सब में मांस सर्वोतम है]
तो हमने हमारी ज्ञान गंगा को आगे बढ़ाया,
कि, शुक्ला जी...
"शब्दा कामधेनवः" अर्थात शब्द अनेक अर्थ देता है
जिस तरह
"प्रस्थं कुमारिकामांसम" मंत्र
'एक सेर कुवांरी कन्या के मांस' की कल्पना से मेल खाता है,
लेकिन यहां कुवांरी कन्या के मांस खाने की बात तो नहीं हो रही है
उसी प्रकार शब्द अनेकार्थी होते हैं
और आप जैसे लोग
उनका अर्थ अपने स्वादानुसार
अपने तरिके से बना लेते हैं
जैसे कि वैध्याक ग्रंथों में
पशु पक्षियों के नाम वाले औषध देखे जाते हैं
जैसे कि
वृषभ (ऋषभकंद), श्वान (कुत्ता घास), मार्जार (चीता), अश्व (अश्वगंधा)
खर (खर्परनी), सर्प (सर्पगंधा), मेष (जिवाशाक), गौ (गौलोमी)
और लोग कहते हैं
कि वैध्याक ग्रंथों में इन जानवरों को खाना लिखा है
जबकि यहां जिक्र औषधियों का है.....
वेदों में तो
यज्ञ का प्रथम मंत्र ही "क्रव्यादांश त्यक्तवा" है
अर्थात
मांस जलाने वाली अग्नि के अंश का त्याग हो
और
"अजेय यष्टव्यम" अर्थात अन्न से यज्ञ हो
तो जहां प्रथम मंत्र ही मांसाहार को वर्जित करे
वहां पर
मांसाहार के समर्थन की कल्पना भी आप कैसे कर सकते हैं
और अगर फिर भी
अनेकानेक सालों के विदेशी आक्रमणों के दौरान
हमारे ज्ञान ग्रंथों में कुछ उल्टा समाविष्ट हो भी गया है
तो
प्रातः स्मरणीय सूर्य भी यदि अपनी किरणों को चुभोने लगे, पाँव जलाने लगे
तो उससे भी बचा जाता है.....
अतैव आप भी,
कुतर्कों की जिजीविषा का त्याग किजिये
और आज हमारे साथ खाकर
तुच्छ घास फूस को कृतज्ञ किजिये
भाई, अब तक
हम जहाज में सुपरहिट हो चूके थे
और
हर एक मांसभक्षी हमें कच्चा खाने को लालायित था
तो अब
कुछ और योद्धा भी उनकी तरफ से
मैदान में आ डटे
अब अगला कुतर्क था कि
लेकिन पौधों में भी तो जान होती है
फिर तुम उन्हें क्यों खाते हो
और हमने बङे वाले वेलकम से ये सवाल लिया
और गला खंखार कर बोले
कि
पहली बात तो यह समझो
कि
हम पौधे का कत्ल नहीं करते
बल्कि उससे केवल
फल, फूल, जङ, बीज, पत्ति लेते हैं
जो कि पुनः उत्पन्न हो जाते हैं
जो कि मांसाहार में नहीं हो सकता
यहां तो बेचारा जीव मरने तक केवल तङपता है
और उससे
दर्द के अतिरिक्त कुछ उत्पन्न नहीं होता
दूसरी बात
पौधे स्थित होते हैं और चल फिर नहीं सकते
अतः
वे स्वयं खुद के फल फूलों को
प्राकृतिक रूप से अन्य जीवों को प्रस्तुत करते हैं
जिससे कि वे उनके उपभोग के पश्चात
अपने बीजों को
अन्यत्र फैला कर अपनी वंश बेल को जीवित रखें
तीसरी और अत्यंत महत्वपूर्ण बात
कि
पौधों के उपभोग के दौरान
मैंने कभी
किसी पौधे को
रोते, चीखते या तङपते हुए
या मुझ से भागने को प्रयासरत नहीं देखा है
अतः उन्हें खाते वक्त
मुझे मेरी अन्तरआत्मा पर बोझ मालूम नहीं पङता
और
ये सब तब है जबकि
एक भी ऐसा मांसाहार नहीं है
जिसके समकक्ष शाकाहार प्रकृति में मौजूद नहीं हो.....
अब हमारी कैंची की तरह चलती
जुबान को रोकने के लिए
रोजी मैडम ने
हमारे हाथ में चाय का कप पकड़ा दिया
और हम सुङक सुङक कर चाय का कत्ल करने लगे
तभी, एक भाई ने पीछे से आवाज़ दी
और बोला
कि
शेर चीते भी तो मांस खाते हैं, तो फिर हम क्यों नहीं
तो हमने पुछा
कि ये बताओ भाईसाहब
कि
आपने कब मुर्गी की तरह अंडा दिया है
आपने कब भेङ कि तरह ऊन दी है
आप कब छिपकली की तरह दिवार पर चढे हैं
या
कब किसी शेर ने शेरनी को प्रेम पत्र लिख कर प्रपोज किया है
तो वे बोले
ये कैसे सम्भव है
मेरा और उनका शरीर अलग अलग तरह का है
और
इस जवाब पर तो जी किया
कि ससुरे कि पप्पी ही खा लूं
पर खुद पर कंट्रोल कर के बोला
कि
भाईसाहब, बस इसी तरह से
हमारी और मांसाहारियों की शारिरिक रचना भी अलग अलग है
पहली बात
कि
उन्हें प्रकृति ने
उसी के अनुसार ढाला है
लम्बे नाखून, खुरदरी जीभ, तीखे कैनाइन दांत,
पेट में मांस पचाने को अम्लियता का उच्च स्तर,
अनपचे मांस के शरीर से 12 घंटे से कम समय में निष्कासन के लिए
सीधी व कम लम्बी आंत
शिकार पकङने को ऐरोडायनेमिकल शरीर
आदि आदि आदि....
मतलब कि
वो शरीर डिजाइन ही मांस खाने को है
लेकिन हम शाकाहारियों से विकसित हैं
अतैव
हमारे पास ऐसा कोई भी विशेष अंग नहीं है
जो मांस खाने के लिए अनुकूलित हो
और अगर हो,
तो इस जहाज का वो शेर मेरे सामने आये
जो मांस को बिना पकाये कच्चा ही खाता हो
या
मांसाहारी जानवरों कि तरह सङा गला मांस भी खा लेता हो
ये कहकर
हमने डाक्टर अली खान जी से पुछा,
क्यों साहब कुछ गलत तो नहीं कहा...
और उनकी चुप्पी, उनका जवाब था
फिर हमने कहा
कि
दूसरी बात यह है कि
वो जानवर हैं और हम इंसान
वो हमारी तरह सोच नहीं सकते हैं,
विश्लेषण नहीं कर सकते हैं, नंगे घुमते हैं,
हमारी तरह मोहब्बत कि गजलें नहीं लिख सकते हैं,
मलत्याग के बाद सफाई नहीं करते हैं,
मांस खाते वक्त 56 मसाले डाल कर नहीं खाते हैं
और
साररुप ये है कि
वो जानवर हैं और हम परिष्कृत
तो
केवल जीभ के स्वाद के लिए
हम उनसे उनकी वहशियाना आदतें क्यों सीखें
और क्यों न
जानवरों से होङ लेने के बजाय
उसी तरह जीयें
जिस तरह से प्रकृति ने हमें बनाया है
अब एक मोहतरमा सामने आई
वैसे वो सामने अब आई थीं
पर
हम काफी देर से चोर नजरों से उन्हें ताङ रहे थे
और उनकी आवाज सुनने को
जैसे मेरा रोम रोम कान बन बैठा था
वे बोलीं
भाईसाहब, अगर हम मांस खाना बंद कर देंगे
तो
क्या इन जानवरों कि संख्या अत्यधिक बढकर प्राकृतिक इकोसिस्टम को
नहीं बिगाड़ देगी.....
ये कहकर, वे मेरे प्रत्युत्तर का इंतजार करने लगी
और सच कहूं
तो
मुझे तो भाईसाहब सुनने के बाद
कुछ भी सूनना ही बंद हो गया था
पर जब शुक्ला जी ने झिंझोङा
तो
हमने अपनी ताजाताजा बनी बहन से कहा कि
दीदी,
ये मांसभक्षी मनुष्यों का मासुमियत में लिपटा अत्यंत कुत्सित कुतर्क है
मासुम इसलिए, क्योंकि ऐसा लगता है
जैसे कि
ये नर्सरी में पढने वाले उस बच्चे का सवाल है
जिसने
प्रथम बार प्रकृति को जानना शुरु किया है
और अतिकुत्सित इसलिए
क्योंकि
इस सवाल कि आङ में
मांसभक्षी खुद को रॉबिनहुड की संज्ञा से सम्मानित कर रहा है
और ये साबित करने की कोशिश कर रहा है
कि
वो जानवरों का कत्ल इस प्रकृति को बचाने को कर रहा है
लेकिन दिल पर हाथ रखकर बताइये
कि
कितने मांसाहारी इसलिए मांस खाते हैं
कि वो प्रकृति को बचाने के लिए इसे खा रहे हैं
या ये लोग
येन केन प्रकारेण, स्वादेंद्रियो के लिये
झूठ पर चांदी का वर्क लगाकर प्रस्तुत कर रहे हैं
मांसाहारी जानवरों ने कभी फार्म हाउस बनाकर जानवर नहीं पाले
लेकिन मनुष्य पालता है
और इकोसिस्टम की परवाह किये बगैर लाखों कि संख्या में पालता है
इकोसिस्टम के खिलाफ जाकर
उनके मांस में वृद्धि के लिए उन्हें इंजेक्शन देता है
जिससे मासुम जानवर
खुद अपना वजन उठाने तक के लायक नहीं बचते
और फिर
उन्हें मांस के लिए
बेदर्दी से कत्ल करने को बेचने के बाद
वही कसाई,
सामाजिक मंचों पर इकोसिस्टम कि दुहाई भी देता है
अरे शर्म करो बे कुछ तो शर्म करो
ये कहकर जब मैंने गुस्से में दीदी को देखा
तो पता नहीं
तब तक वो कहां गायब हो गई
हे भगवान,
कहीं शर्मिंदा होकर चलते जहाज से तो नहीं कुद गई
ये देखने को हम उठे
तो वो बैठी दिख गई
और हमारी जान में जान आई
अब तक
इस चर्चा का फैलाव पूरे जहाज में हो चुका था
और
कुछ मांसाहारियों ने तो
अपने लंच आर्डर को होल्ड पर डलवा लिया था
और सभी चर्चा को आगे बढते देख रहे थे
अब एक कोट पैंट पहने हुए सुसज्जित
इंडस्ट्रीयलिस्ट की जिज्ञासा ने पंख फैलाये
और बोले
कि
अगर सभी लोग शाकाहारी हों जायें तो फिर इतनी बङी मीट इंडस्ट्री का क्या होगा?
क्या लाखों लोग बेरोजगार नहीं हो जायेंगे?
तो हमने कहा,
जी नहीं माननीय,
तब ये लोग बेरोजगार होने की बजाय अधिक उत्पादक हो जायेंगे
उन्होंने पुछा, भला वो कैसे
तो हमने जवाब आगे बढाया
कि
अगर वही लोग मांस के स्थान पर अन्न का उत्पादन करने लगें
तो उतनी ही लागत में
वे 10 गुना अधिक लोगों की थाली में भोजन परोस सकते हैं
क्योंकि
एनर्जी पिरामिड के अनुसार
एक युनिट मांस को बनने में कम से कम 10 युनिट शाक काम आता है
अर्थात
मांस जितनी मात्रा में एक व्यक्ति का क्षुधा पोषण करता है
उसके समरूप प्रयास व ऊर्जा द्वारा
शाक 10 लोगों का पेट भरने को पर्याप्त है
और इसके फलस्वरूप
मृतप्राय अर्थव्यवस्थाओं में उत्थान होगा
जो कि
10 गुना ज्यादा समृद्धि के रूप में परिलक्षित होगा
और साथ ही साथ
भविष्य की संततियां भी अपने पूर्वजों की आभारी रहेंगी
कि, उनके पूर्वज
उन्हें कम प्रदूषित वातावरण और कम भूखी जिंदगी सौंप कर गये हैं
अब एक इक्कीस साल की खुबसूरत बाला उठी
उपरोक्त तथ्यों का तो उसके पास जवाब नहीं था
और इन से प्रभावित भी थी
परन्तु आत्मा में अभी तलक
तमस तत्व, सात्विक तत्व पर दबाव बनाये हुए था
जिसके कारण उन्होंने एक और बार
मांसाहार को तार्किक बताने के लिए अपना सवाल पेश किया
कि आपके कहे अनुसार
अगर मांसाहार पूर्णतः अतार्किक है
तो फिर
मनुष्य प्रजाति ने प्रथमतः इसे खाया ही क्यों था?
और अगर हमनें शुरु कर ही दिया तो अब ये गलत क्यों?
उनके प्रश्न पर मैं जोर जोर से हंसा
और उन्हें लगा कि लो इस बार तो मुर्गा फंसा
परन्तु फिर मैंने गम्भीर होकर उस बाला से पूछा
कि हे देव कन्या
बिल्कुल यही तथ्य अपराधों, चालबाजियों, नस्लभेद,
नारी उत्पीड़न, आतंकवाद और बलात्कार पर भी तो लागु होता है
इन सब बुराइयों को भी तो
मनुष्य प्रजाति ने ही प्रथमतः शुरू किया था
तो फिर, आपके अनुसार तो
इनका विरोध भी नाजायज है
क्योंकि जब हमनें शुरू कर ही दिया, तो फिर अब विरोध क्यों
मैं आपसे पूछता हूँ कि,
क्या आप स्वयं को बलात्कार के लिए प्रस्तुत करेंगी?
क्योंकि
मनुष्यों ने इसे प्रथमतः शुरू किया था
नहीं ना.......
क्योंकि आप जानती हैं
कि यह एक सामाजिक बुराई है और हमें इससे दूर रहना है
बिल्कुल उसी तरह मांसाहार भी एक सामाजिक बुराई है
जो विकास क्रम में अल्पबुद्धि वश
हमारी जीवनशैली के तौर तरीकों में समाविष्ट हो गई होगी
अतः हमें अन्य बुराइयों कि तरह
इस अधोगामी बुराई का भी प्रतिकार करना ही होगा
चाहे ये आज के दिन
कितनी भी स्वादिष्ट क्यों ना नजर आए
फिर मैंने उनसे,
हाथ जोड़कर दिये गये उदाहरण पर माफी मांगी
और इस तथ्य से जूङी,
किसी और शंका के बारे में पूछा
तो उन्होंने संतुष्टी भरी मुस्कान के साथ
मुझे क्षमा करते हुए गर्दन हिला कर मना कर दिया.....
अब एक अम्माजी
जो काफी उम्रदराज थीं
उन्होंने अपने बेटे से कहा
कि, देख कितना आस्तिक लङका है
और ये सुनते ही, हवा में नया सवाल लहरा उठा
कि
मैं किसी अनदेखी सत्ता के नाम की आङ में शाकाहारी बना हुआ हूं
और मुझे किसी के पूछे बिना ही ये सवाल लेना पड़ा
और मैंने उन आदरणीया से कहा
माताजी,
अगर मैं आस्तिक हूं
तो ये सारी बाते समझना आसान है
परन्तु अगर मैं
संशयवादी, अज्ञेयवादी या नास्तिक हूं
तब तो शाकाहार की विवेचना और भी तथ्यपरक हो जाती है
क्योंकि
तब मैं खुद को
किसी भी मूरत या किताब के आदर्शों से परे
एक स्वयंभू जीव मानता हूँ....
और तब
मेरा या मानना नितांत आवश्यक हो उठता है
कि इस जीवसत्तात्मक जीवन में
मैं किसी और जीव को दर्द सौंप ही नहीं सकता हूं
तब,
जबकि मैं घोषित या लिखित विवेचनाओं से परे हूं
तब तो
मैं किसी भी आदर्श आनुपातिक जीव समाज में
किसी अन्य जीव को कष्ट देने की कल्पना भी नहीं कर सकता
क्योंकि कोई भी अनश्वरवादी खुद को केवल इंसान समझता है
अतैव इंसानियत ही उसकी एकमेव धर्म संहिता भी है
और
मैं निश्चित रूप से कह सकता हूं
कि
इंसानियत कभी भी
खुद की क्षुधापूर्ति के लिए
अन्य जीव को दर्द देने की समर्थक हो ही नहीं सकती है
तभी पायलट ने घोषणा की
कि अपनी सीटपेटिका बांध लिजिये
जहाज लैंडिंग करने जा रहा है
और सकुशल लैंडिग के पश्चात
मेरा मन ये देख कर अत्यंत प्रसन्न था
कि,
कम से कम उस एक दिन
जहाज में किसी ने मांसाहार नहीं लिया था
रोजी ने जहाज से उतरते वक्त मुझसे मेरे फोन नम्बर मांगे
और कहा कि सर एक आखिरी जिज्ञासा है
कि, अगर मनुष्य ऐसी जगह रहता हो,
जहां दूर दूर तक कोई वनस्पति ना हो तो वो क्या करे?
तो हमने कहा
कि ऐसी परिस्थिति में, मैं मांस भक्षण का समर्थन करता हूं......
इस पृथ्वी पर मुख्यतः
आर्कटिक और अंटार्कटिक नामक दो
तथा कुछ और दो चार स्थान
आपकी कल्पना से मेल खाते हैं
और
अब चुंकि आपके पास मेरा नम्बर है
तो अंतिम बार
आपके परिवार, रिश्तेदारी, गांव या शहर में से
जो भी व्यक्ति इनमें से किसी स्थानों पर गया हो
तो कृपा करके उनकी कुछ फोटोस
आप मुझे वाॅटसऐप कर दीजियेगा
ताकि मुझे भी तो पता चले
कि,
कितने सारे लोग इस कारण से मांसाहारी बने हुए हैं....
ये कहकर, मैं तो चल दिया
मगर रोजी इतनी गहरी सोच मैं डूबी,
कि उस रोज
मेरे बाद उसने किसी और यात्री को
उनके साथ यात्रा करने का धन्यवाद प्रेषित नहीं किया......
#आर्यवर्त
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