जाती
#जाती -
अब तक आप सभी मित्रो ने मेरी जो भी पोस्ट पढ़ी है ...उसमे जातियों (वर्णो) के कुल गोत्र आदि के बारे में बताया गया था, अब मैं आपको जातियां बनी कैसे, ये सब शुरू कहा से हुआ ये बताने से पहले.... आपकी कुछ भ्रांतियां जो धर्म के ठेकेदारों ने आपके जेहन में डाल रखी है उसका खंडन करते हैं।
#पुरुषसूक्त ऋग्वेद संहिता के दसवें मण्डल का एक प्रमुख सूक्त यानि मंत्र संग्रह (10.90) है, जिसमें एक विराट पुरुष की चर्चा हुई है और उसके अंगों का वर्णन है।इसका एक श्लोक है -
ब्राह्मणोऽस्य मुखामासीद्वाहू राजन्यः कृतः। ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत॥१३॥
#श्लोक का अनुवाद है - ब्राह्मण मुख (मुख्य काम के लिए) हेतु, राजन्य (क्षत्रिय) वीर-बलों के कार्य हेतु, वैश्य उरु, अर्थात सर्व स्थान यात्रा और शूद्र पग यानि सेवा जैसे गुणों के लिए बने हैं।
यही श्लोक सुना सुना के ब्राम्हणो को गालियां दी जाती है लेकिन इसकी सच्चाई कोई नही बताता अरे भाई बता दिया तो दुकान कैसे चलेगी लेकिन आइये हम सभी इसका खंडन करते है -
#इसका वास्तविक अर्थ जानने के लिए इससे पहले मंत्र 12 पर गौर करना जरूरी है | वहां सवाल पूछा गया है – मुख कौन है?, हाथ कौन है?, जंघा कौन है? और पाँव कौन है? तुरंत बाद का मंत्र जवाब देता है – ब्राहमण मुख है, क्षत्रिय हाथ हैं, वैश्य जंघा हैं तथा शूद्र पैर हैं |
#यह ध्यान रखें की मंत्र यह नहीं कहता की ब्राह्मण मुख से “जन्म लेता” है … मंत्र यह कह रहा है की ब्राह्मण ही मुख है | क्योंकि अगर मंत्र में “जन्म लेता” यह भाव अभिप्रेत होता तो “मुख कौन है?” इत्यादि प्रश्नों का उत्तर देने की आवश्यकता ही नहीं थी |
#इसका सत्य अर्थ है – समाज में ब्राह्मण या बुद्धिजीवी लोग समाज का मस्तिष्क, सिर या मुख बनाते हैं जो सोचने का और बोलने का काम करे | बाहुओं के तुल्य रक्षा करने वाले क्षत्रिय हैं, वैश्य या उत्पादक और व्यापारीगण जंघा के सामान हैं जो समाज में सहयोग और पोषण प्रदान करते हैं (ध्यान दें ऊरू अस्थि या फिमर हड्डी शरीर में रक्तकोशिकाओं का निर्माण करती हैं और सबसे सुदृढ़ हड्डी होती है ) | ऋगवेद में ऊरू या जंघा के स्थान पर ‘मध्य’ शब्द का प्रयोग हुआ है | जो शरीर के मध्य भाग और उदर का द्योतक है | जिस तरह पैर शरीर के आधार हैं जिन पर शरीर टिक सके और दौड़ सके उसी तरह शूद्र या श्रमिक बल समाज को आधार देकर गति प्रदान करते हैं |
#इससे अगले मंत्र इस शरीर के अन्य भागों जैसे मन, आंखें इत्यादि का वर्णन करते हैं | पुरुष सूक्त में मानव समाज की उत्पत्ति और संतुलित समाज के लिए आवश्यक मूल तत्वों का वर्णन है |
यह अत्यंत खेदजनक है कि सामाजिक रचना के इतने अप्रतिम अलंकारिक वर्णन का गलत अर्थ लगाकर वैदिक परिपाटी से सर्वथा विरुद्ध विकृत स्वरुप में प्रस्तुत किया गया है |
#कुछ_अन्य -
ब्राह्मण ग्रंथ, मनुस्मृति, महाभारत, रामायण और भागवत में भी कहीं परमात्मा ने ब्राह्मणों को अपने मुख से मांस नोंचकर पैदा किया और क्षत्रियों को हाथ के मांस से इत्यादि ऊलजूलूल कल्पना नहीं पाई जाती है |
जैसा कि आधुनिक युग में विद्वान और विशेषज्ञ सम्पूर्ण मानवता के लिए मार्गदर्शक होने के कारण हम से सम्मान पाते हैं इसीलिए यह सीधी सी बात है कि क्यों ब्राह्मणों को वेदों में उच्च सम्मान दिया गया है | अपने पूर्व लेखों में हम देख चुके हैं कि वेदों में श्रम का भी समान रूप से महत्वपूर्ण स्थान है | अतः किसी प्रकार के (वर्ण व्यवस्था में) भेदभाव के तत्वों की गुंजाइश नहीं है |६. वैदिक संस्कृति में प्रत्येक व्यक्ति जन्मतः शूद्र ही माना जाता है | उसके द्वारा प्राप्त शिक्षा के आधार पर ही ब्राह्मण, क्षत्रिय व वैश्य वर्ण निर्धारित किया जाता है | शिक्षा पूर्ण करके योग्य बनने को दूसरा जन्म माना जाता है | ये तीनों वर्ण ‘द्विज’ कहलाते हैं क्योंकि इनका दूसरा जन्म (विद्या जन्म) होता है | किसी भी कारणवश अशिक्षित रहे मनुष्य शूद्र ही रहते हुए अन्य वर्णों के सहयोगात्मक कार्यों को अपनाकर समाज का हिस्सा बने रहते हैं |
#विशेष - कम्युनिस्ट और पूर्वाग्रह ग्रस्त भारतीय चिंतकों की भ्रामक कपोल कल्पनाओं ने पहले ही समाज में अलगाव के बीज बो कर अत्यंत क्षति पहुंचाई है | अभाग्यवश दलित कहे जाने वाले लोग खुद को समाज की मुख्य धारा से कटा हुआ महसूस करते हैं, फलतः हम समृद्ध और सुरक्षित सामाजिक संगठन में नाकाम रहे हैं | इस का केवल मात्र समाधान यही है कि हमें अपने मूल, वेदों की ओर लौटना होगा और हमारी पारस्परिक (एक-दूसरे के प्रति) समझ को पुनः स्थापित करना होगा |
#आर्यवर्त
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