अखंड भारत (आर्यवर्त)
अखंड भारत (आर्यवर्त)
तीनों देशों को मिलाकर अखंड भारत कहने की जगह हम इसको सांस्कृतिक भारत और बृहत्तर भारत कहेंगे. सांस्कृतिक भारत की जब हम बात करते हैं तो तीनों देशों में जो भी सांस्कृतिक प्रतीक हैं, जो कि तीनों देशों में हमें प्राप्त हैं, जैसे- नदियों के नाम हैं, प्रमुख नगरों के नाम हैं, प्रमुख चिह्न और स्थल हैं, वे सब तीनों देशों को आपस में जोड़ते हैं. जब अखंड भारत था तो जो भी इस प्रकार के सांस्कृतिक स्थल थे, जहां हम जाते थे वे सब तीनों देशों में मौजूद हैं. इसलिए भाषा की दृष्टि से, साहित्यिक दृष्टि से, संस्कृति की दृष्टि से और भौगोलिक दृष्टि से भी, ये सब जो समानताएं हैं वे सब समानताएं वास्तव में इसको एक बृहत्तर भारत बनाती हैं. तीनों देशों में सबके अपने उत्सव हैं जो अपने-अपने ढंग से अपने-अपने यहां मनाए जाते हैं. संस्कृति का अर्थ यह है कि सम्यक करोति इति संस्कार: अर्थात जो संस्कार देती है, यानी जो बताती है कि जीने का ढंग ऐसा होना चाहिए जो सबके लिए लाभकारी हो. इस तरीके की सोच हमारे भारत की है. इस तरह की पहल भारत ही कर सकता है. कोई पाकिस्तान या बांग्लादेश यह सोच आगे नहीं बढ़ा सकता. यह सोच अगर शुरू करनी है तो भारत ही करेगा. भारत का हिस्सा रहे तीनों देश और जहां-जहां भी हमारे चिह्न हैं, उन्हें हम भारत का एक सांस्कृतिक स्वरूप कहते हैं. इन तीनों देशों की भौगोलिक सीमाएं एक हैं, इसलिए हम अखंड भारत कह सकते हैं. भारत को इस दृष्टि से प्रयास करना चाहिए. उसके लिए सांस्कृतिक आदान-प्रदान, साहित्यकारों का आना-जाना, तीनों देशों के तीर्थ यात्रियों का स्वागत करना, उनका सम्मान करना, साहित्य का सृजन करना, उसके बारे में बच्चों को बताना, इन सब बातों को शिक्षा में लाना- ये सब वे साधन हैं जिनको अपनाने से एक बृहत्तर भारत की संकल्पना साकार हो सकती है, यदि भारत आगे बढ़कर प्रयास करे तो.
जहां तक भौगोलिक सीमाओं का सवाल है तो भारत, पाकिस्तान एवं बांग्लादेश तीन राज्य हैं. वे तो राज्य ही रहेंगे. शासन तीनों का रहेगा ही. हम सांस्कृतिक दृष्टि से एक हो सकते हैं, जो हमारी परंपराएं हैं, संस्कृतियां हैं उनको याद कर सकते हैं. उस दृष्टि से भारत एक पहल करे कि हमारा एक सांस्कृतिक मंडल पाकिस्तान जाए, या बांग्लादेश जाए, वहां एक प्रकार की सोच का प्रसार करे कि सीमाएं होते हुए भी कोई शत्रुता नहीं रहे. तीनों में एकता का भाव विकसित हो. जब अखंड भारत की बात तीनों प्रदेश करेंगे तो शत्रुता अपने आप खत्म हो जाएगी. हम एक-दूसरे के सुख-दुख में सहायक हो सकते हैं. प्राकृतिक आपदाएं आती हैं तो तीनों मिलकर उन आपदाओं को दूर करने का प्रयास करेंगे. अब यह स्थिति तो नहीं हो सकती कि तीनों राज्य एक हो जाएं. शुरुआत सांस्कृतिक भारत से होगी, बृहत्तर भारत से होगी और आगे चलकर अगर स्थिति बनेगी तो तीनों एक भी हो सकते हैं.
एकीकरण के मामले में जर्मनी का उदाहरण है लेकिन उनमें और हममें फर्क है. जर्मनी अलग हुआ था तो उसके दोनों हिस्से बिल्कुल समान थे. जर्मनी का बंटवारा इतनी कटुता से नहीं हुआ था. हमारे यहां पाकिस्तान और बांग्लादेश कटुता से बने हैं. तमाम लड़ाई-झगड़े हुए, मार-काट हुई. इसलिए वहां फर्ज था लेकिन यहां पर हृदय परिवर्तन की बात है. मैंने तो बताया है कि तीनों प्रदेशों की भौगोलिक सीमाएं रहेंगी. तीनों देशों का राज्य भी रहेगा. सांस्कृतिक दृष्टि से हम एक रहेंगे. उत्सव मनाएंगे साथ. अनेक प्रकार के कार्यक्रम हो सकते हैं एक साथ जो कि हम तीनों समान रीति से मना सकते हैं. एक-दूसरे के देश में जा सकते हैं, आ सकते हैं. धार्मिक स्थल हैं, उनको बनाए रख सकते हैं, उनको आदर दे सकते हैं. जैसे पाकिस्तान में मुल्तान प्रह्लाद की जन्मभूमि है. अब अगर प्रह्लाद को याद करना है तो मुल्तान को याद करना होगा. लव-कुश है तो लाहौर को याद करना पड़ेगा. ऐसे जो हमारे प्राचीन नाम हैं और जो इस प्रकार के लोग रहे हैं उनको हमें स्मरण करना होगा. ऐसी सांस्कृतिक स्मृति होनी चाहिए और कटुता खत्म होनी चाहिए.
इसे बृहत्तर भारत तब बोलेंगे जब हम एक होंगे. एकता का आधार संस्कृति है. इसलिए अगर सांस्कृतिक दृष्टि से हमने आपस में मिलना-जुलना शुरू किया, एक-दूसरे के सुख-दुख में सहायक होना शुरू किया तो निश्चित ही यह जो भौगोलिक सीमा है, यह भी हो सकता है आगे चलकर यह न रहे. हम पासपोर्ट और वीजा के बिना ही एक-दूसरे के यहां आ-जा सकें. आना-जाना सब सरल हो जाए जैसा कि कई देशों में है. आप अगर बृहत्तर भारत कहते हैं तो उसकी व्याख्या सांस्कृतिक भारत हो जाएगी. जहां तक सांस्कृतिक भारत जैसी संज्ञा को पाकिस्तान या दूसरे देशों द्वारा स्वीकार करने का सवाल है तो ग्रेटर इंडिया तो हम उच्च शिक्षा में पढ़ाते ही हैं. जब हम ग्रेटर इंडिया पढ़ाते हैं तो उसके कुछ बिंदु हैं कि क्यों इसे ग्रेटर इंडिया कहा जाता है. ग्रेटर इंडिया जैसा शब्द तो तीनों देशों की शिक्षा स्वीकार कर रही है. जब हम संस्कृति की बात करते हैं तो उस पर प्रश्नचिह्न खड़ा हो जाता है. लेकिन धीरे-धीरे पहले उसको स्वीकार किया जाए और उसे फैलाया जाए. मेरा मानना है कि जब हम तीनों सोचना-विचारना, उठना-बैठना, मिलना-जुलना, आना-जाना शुरू करेंगे, तो फिर आर्थिक दृष्टि से भी एकता हो सकती है. आर्थिक निवेश और व्यापार भी हो सकता है. एकता होने पर यूरोपीय संघ जैसा भी प्रयोग हो सकता है. पहले जरूरी है कि यह सोच शुरू करनी चाहिए. जो भी इतिहासकार, साहित्यकार हैं, जो भी देश के बारे में सोचने वाले हैं, भारत, पाकिस्तान या बांग्लादेश के, उनमें जो अच्छी सोच रखने वाले लोग हैं, उनका स्मरण किया जाए तो अपने आप बात आगे बढ़ जाएगी.
(लेखक शिक्षा बचाओ आंदोलन के संयोजक एवं संघ विचारक हैं)
(कृष्णकांत से बातचीत पर आधारित)
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