शिव का दर्शन

||शिव का दर्शन||

शिव के जीवन और दर्शन को जो लोग यथार्थ दृष्टि से देखते हैं वह सही बुद्धि वाले और यथार्थ को पकड़ने वाले शिवभक्त हैं, क्योंकि शिव का दर्शन कहता है कि यथार्थ में जीयो, वर्तमान में जीयो अपनी चित्तवृत्तियों से लड़ो मत, उन्हें अजनबी बनकर देखो और कल्पना का भी यथार्थ के लिए उपयोग करो। आइंस्टीन से पूर्व शिव ने ही कहा था कि कल्पना ज्ञान से ज्यादा महत्वपूर्ण है।
विज्ञान भैरव तंत्र एक ऐसा ग्रंथ है, जिसमें भगवान शिव द्वारा पार्वती को बताए गए 112 ध्यान सूत्रों का संकलन है। योगशास्त्र के प्रवर्तक भगवान शिव के ‘विज्ञान भैरव तंत्र’ और ‘शिव संहिता’ में उनकी संपूर्ण शिक्षा और दीक्षा समाई हुई है। तंत्र के अनेक ग्रंथों में उनकी शिक्षा का विस्तार हुआ है।

भगवान भोलेनाथ की पूजा के दौरान इस मंत्र के द्वारा शिवजी को स्नान समर्पण करना चाहिए-

ॐ वरुणस्योत्तम्भनमसि वरुणस्य सकम्भ सर्ज्जनीस्थो |
वरुणस्य ऋतसदन्यसि वरुणस्य ऋतसदनमसि वरुणस्य ऋतसदनमासीद् ||

भगवान शिव की पूजा करते समय इस मंत्र के द्वारा उन्हें यज्ञोपवीत समर्पण करना चाहिए-

ब्रह्म ज्ज्ञानप्रथमं पुरस्ताद्विसीमतः सुरुचो वेन आवः |
स बुध्न्या उपमा अस्य विष्ठाः सतश्च योनिमसतश्च विवः ||

शिवजी की पूजा में इस मंत्र के द्वारा भगवान भोलेनाथ को गंध समर्पण करना चाहिए-

ॐ नमः श्वभ्यः श्वपतिभ्यश्च वो नमो नमो भवायरुद्राय च नमः |
शर्वाय च पशुपतये च नमो नीलग्रीवायशितिकण्ठाय च ||

भगवान भोलेनाथ की पूजा के दौरान इस मंत्र के द्वारा त्रिलोचनाय भगवान शिव को पुष्प समर्पण करना चाहिए-

ॐ नमः पार्याय चावार्याय च नमः प्रतरणाय चोत्तरणाय च |नमस्तीर्थ्यायकूल्याय च नमः शष्प्यायफेन्याय च ||

शिव की पूजा में इस मंत्र के द्वारा अर्धनारीश्वर भगवान भोलेनाथ को धूप समर्पण करना चाहिए-

ॐ नमः कपर्दिने च व्युप्त केशाय च नमः सहस्त्राक्षाय च शतधन्वने च |
नमो गिरिशयायशिपिविष्टाय च नमो मेढुष्टमाय चेषुमते च ||

इस मंत्र के द्वारा चन्द्रशेखर भगवान भोलेनाथ को नैवेद्य अर्पण करना चाहिए-

ॐ नमो ज्येष्ठायकनिष्ठाय च नमः पूर्वजाय चापरजाय च |नमो मध्यमाय चापगल्भाय च नमो जघन्यायबुधन्याय च ||

शिव पूजा के दौरान इस मंत्र के द्वारा भगवान शिव को ताम्बूल पूगीफल समर्पण करना चाहिए-

ॐ इमा रुद्राय तवसे कपर्दिने क्षयद्वीराय प्रभरामहे मतीः |
यशा शमशद् द्विपदे चतुष्पदे विश्वं पुष्टं ग्रामे अस्तिमन्ननातुराम् ||

भगवान शिव की पूजा करते समय इस मंत्र से भोलेनाथ को सुगन्धित तेल समर्पण करना चाहिए-

ॐ नमः कपर्दिने च व्युप्त केशाय च नमः सहस्त्राक्षाय च शतधन्वने च |
नमो गिरिशयायशिपिविष्टाय च नमो मेढुष्टमाय चेषुमते च ||

इस मंत्र के द्वारा भगवान भोलेनाथ को दीप दर्शन कराना चाहिए-

ॐ नमः आराधे चात्रिराय च नमः शीघ्रयायशीभ्याय
नमः ऊर्म्याय चावस्वन्याय च नमो नादेयायद्वीप्याय च ||

इस मंत्र से भगवान शिवजी को बिल्वपत्र समर्पण करना चाहिए-

दर्शनं बिल्वपत्रस्य स्पर्शनं पापनाशनम् |
अघोरपापसंहारं बिल्वपत्रं शिवार्पणम् ||

भैरव शब्द के तीन अक्षरों भ-र-व में ब्रह्मा-विष्णु-महेश की उत्पत्ति-पालन-संहार की शक्तियां सन्निहित हैं। नित्यषोडशिकार्णव की सेतुबंध नामक टीका में भी भैरव को सर्वशक्तिमान बताया गया है-भैरव: सर्वशक्तिभरित:। शैवों में कापालिक संप्रदाय के प्रधान देवता भैरव ही हैं।
ये भैरव वस्तुत:रुद्र-स्वरूप सदाशिवही हैं। शिव-शक्ति एक दूसरे के पूरक हैं। एक के बिना दूसरे की उपासना कभी फलीभूत नहीं होती। यतिदण्डैश्वर्य-विधान में शक्ति के साधक के लिए शिव-स्वरूप भैरवजी की आराधना अनिवार्य बताई गई है।
रुद्रयामल में भी यही निर्देश है कि तंत्रशास्त्रोक्त दस महाविद्याओं की साधना में सिद्धि प्राप्त करने के लिए उनके भैरव की भी अर्चना करें। उदाहरण के लिए कालिका महाविद्या के साधक को भगवती काली के साथ कालभैरव की भी उपासना करनी होगी।
इसी तरह प्रत्येक महाविद्या-शक्ति के साथ उनके शिव (भैरव) की आराधना का विधान है। दुर्गा सप्तशती के प्रत्येक अध्याय अथवा चरित्र में भैरव-नामावली का संपुट लगाकर पाठ करने से आश्चर्यजनक परिणाम सामने आते हैं, इससे असंभव भी संभव हो जाता है।
श्री यंत्र के नौ आवरणों की पूजा में दीक्षा प्राप्त साधक देवियों के साथ भैरव की भी अर्चना करते हैं।

                          ।। भैरव ।।

शिवे भक्ति: शिवे भक्ति: शिवे भक्तिर्भवे भवे ।
अन्यथा  शरणं  नास्ति  त्वमेव  शरणं  मम् ।।

लिंग पुराण मे एैसा वर्णन आता है ,  दारुक नाम का असुरों मे रत्न हुआ , उसने अपनी तपस्या के पराक्रम से कालाग्नि प्राप्त कर ली । अब वह देवताओं को पीड़ित करने लगा , देवों ने डर के कारण महादेव की शरण ली क्योंकि वह सिर्फ़ स्त्री के द्वारा ही मारा जा सकता था । देवदेवेश्वरी माता पार्वती ने अपने सोलहवें अंश से पार्वतीपति महादेव मे प्रविष्ठ हो महादेव के कण्ठ मे स्थित विष से अपने शरीर को बनाया , भूतभावन महादेव ने अपने तीसरे नेत्र से कालकण्ठी कपर्दिनी काली को उत्पन्न किया ।
  माँ काली के विकराल रूप से उत्पन्न होते ही सभी देव , सिद्धगण , ब्रह्मा , विष्णु , इन्द्र - भय के कारण भागने लगे । माँ काली ने तत्क्षण दारुक का वध तो कर दिया परंतु उनकी अतिशय क्रोध की अग् शांत न होने के कारण सम्पूर्ण जगत व्याकुल हो उठा । तब महादेव माया से बाल रूप धारण कर , माँ काली की क्रोधाग्नि पीने के लिये काशी के श्मशान मे जा कर रोने लगे । माँ काली ने महादेव की माया से मोहित हो कर , बालरूप ईशान को गोद मे उठा लिया तथा उनका मस्तक सूँघ कर उन्होने बालरूप को स्तनपान कराया । बालरूप महादेव दूध के साथ माँ काली की क्रोधाग्नि भी पी गये एवं क्रोध से क्षेत्रों की रक्षा करने वाले क्षेत्रपाल ( भैरव ) ' अष्ट भैरव ' रूप मे प्रतिष्ठित हो गये ।

                           ।। शिवोपासना ।।

सभी प्राणियों की एक ही कामना है ' दुखो की समाप्ति और चिर क़ालीन आनंद की प्राप्ति ' और इसे प्राप्त करने के लिये शास्त्रों में अनेकानेक साधन कहे गये हैं ।
साधनों में मुख्यत: (१) निष्काम कर्म , (२) भक्ति ( उपासना - पूजा ) , (३) ज्ञान हैं । तदानुसार वेदों में भी (१) कर्म , (२) उपासना , एवं (३) ज्ञान , तीन काण्ड माने गये हैं । जिनसे क्रमानुसार मल , विक्षेप , आवरण दूर होते हैं । इनके दूर होते ही वास्तविक शिव स्वरूप ( मुक्ति ) की प्राप्ति होती है ।

मुक्तिर्हित्वाऽन्यथारूपं स्वरूपेण व्यवस्थिति:

उपरोक्त तीन साधनों में ' उपासना ' उत्कृष्ट भक्ति की स्वरूप एवं व्यवहारिक रूप अन्य की अपेक्षा ज्यादा सरल है । उपासना भाव प्रधान हो कर कर्म एवं ज्ञान के समान कठिन नहीं है , हालाँकि यत्न एवं सावधानी तो अवश्य ग्राह्य है ही । उपासना अर्थात , उप- समीप , सना-बैठना । संसार की सभी वस्तुओं से मन हटा कर इष्टदेव के पास बैठ इष्टाकार मनोवृत्ति को धाराप्रवाह चलाना ही उपासना है ।

विजातीयप्रत्ययानन्तरित सजातीयवृत्तिप्रवाह उपासनमिति - गुणचिन्तन उपासनम् ।

शास्त्रों में उपासना के भी कई प्रकार - अहंग्रहोपासना , प्रतीकोपासना , अंगोपासना । पुन: आरोप्यप्रधान उपासना को सम्पद् , आलम्बनप्रधान उपासना को अध्यास ( प्रतीकोपासना ) कहा जाता है । प्रतीक के आलम्बन होने से प्रतीकोपासना जैसे शालग्राम में विष्णु चतुर्भुजमूर्ति , वाणलिंग में शिवमूर्ति , यन्त्र में  देवीमूर्ति  प्रतीक मान कर ही उपासना होती है । सामान्यतः आलम्बन कुछ तो चाहिये जिसे प्रतीक के रूप में ही प्रतिष्ठित कर चित्त वृत्ति को केन्द्रित किया जा सके , शून्य में तो केन्द्रित नहीं किया जा सकता । पूजन भी उपासना का एक प्रकार है जिसे अधिकारानुसार सभी कर सकते हैं । परा , मानसी , वांगमयी , कायिकी , द्रव्यमयी , भावमयी आदि पूजा के कई भेद होते हैं तदानुसार राजेपचार , षोडशोपचार , पंचोपचार आदि प्रकार शास्त्रों में वर्णित है|

शिव का जीवात्मा रूप रुद्र कहलाता है। सृष्टि के आरंभ और विनाश के समय रुद्र ही शेष रहते हैं। सृष्टि और प्रलय, प्रलय और सृष्टि के मध्य नृत्य करते हैं। जब सूर्य डूब जाता है, प्रकाश समाप्त हो जाता है, छाया मिट जाती है और जल नीरव हो जाता है उस समय यह नृत्य आरंभ होता है।
तब अंधकार समाप्त हो जाता है और ऐसा माना जाता है कि उस नृत्य से जो आनंद उत्पन्न होता है वही ईश्वरीय आनंद है। शिव,महेश्वर, रुद्र, पितामह, विष्णु, संसार वैद्य, सर्वज्ञ और परमात्मा उनके मुख्य आठ नाम हैं। तेईस तत्वों से बाहर प्रकृति,प्रकृति से बाहर पुरुष और पुरुष से बाहर होने से वह महेश्वर हैं।

प्रकृति और पुरुष शिव के वशीभूत हैं। दु:ख तथा दु:ख के कारणों को दूर करने के कारण वह रुद्र कहलाते हैं। जगत के मूर्तिमान पितर होने के कारण वह पितामह, सर्वव्यापी होने के कारण विष्णु, मानव के भव रोग दूर करने के कारण संसार वैद्य और संसार के समस्त कार्य जानने के कारण सर्वज्ञ हैं। अपने से अलग किसी अन्य आत्मा के अभाव के कारण वह परमात्मा हैं।

कहा जाता है कि सृष्टि के आदि में महाशिवरात्रि को मध्य रात्रि में शिव का ब्रह्म से रुद्र रूप में अवतरण हुआ, इसी दिन प्रलय के समय प्रदोष स्थिति में शिव ने ताण्डव नृत्य करते हुए संपूर्ण ब्रह्माण्ड अपने तीसरे नेत्र की ज्वाला से नष्ट कर दिया।

आचार्य शंकर जी सौन्दर्य लहरी में महासंहार की की उलेख करते हुवे य कहते है कि —
विरिंचिः पंचत्वं व्रजति हरिराप्नोति विरतिं
विनाशं कीनाशो भजति धनदो याति निधनम् ।
वितंद्री माहेंद्री विततिरपि संमीलित दृशा
महासंहारेऽस्मिन् विहरति सति त्वत्पतिरसौ

जब महासंहार की
होती उपस्थित प्रलय वेला
विधाता पंचत्व पाते विष्णु परम विरामग्राही
काल भी उस काल
हो जाता अचानक कालकवलित
प्राप्त कर लेते निधन को धनद
चिर निद्रा-विलीना इन्द्र आँखें
महाप्रलय कठोर क्रीड़ा संचरण में
किन्तु इस प्रलयंकरी सर्वस्वग्रासी खेल में भी
पति तुम्हारे
विहरते स्वाधीन शिव
साध्वी सती हे !

तंत्र के अनुसार सृष्टि-क्रम कुछ इस प्रकार है: पहले परर्पिंड यानी संयोग (शिव और शक्ति का मिलन, फिर त्रिगुणात्मक आदि-पिंड और तब नीले रंग का महाप्रकाश, धूम्र रंग का महावायु,,रक्तवर्ण का महातेज, श्वेत वर्ण, का महासलिल, पीतवर्ण की महापृथ्वी, पांच महातत्वों से उत्पत्ति, महासाकार पिंड, भैरव, श्रीकंठ , सदाशिव, ईश्वर, रुद्र, विष्णु, ब्रह्मा, नर-नारी, प्राकृतिक पिंड (नर-नारी संयोग) और पुरुष तथा नारी का जन्म|
इस प्रकार अग्नि, सूर्य और सोम मिलकर सृजन का त्रिभुज यानी योनि बनाते हैं. और यूं शून्य तथा अंधकार से सृजन की कहानी शुरू होती है. शिव से पृथ्वी तक ३६ तत्त्व हैं जो आत्मा से जुड़ कर सजीव और निर्जीव जगत का निर्माण करते है|
प्रलय काल में पृथ्वी जल में, जल अग्नि में, अग्नि वायु में और वायु आकाश में लीन होकर पुनः बिंदु रूप में आ जाती है. यही संकोच और विस्तार प्रलय और सृजन है तथा प्राणि-मात्र में जन्म और मृत्यु है|
बिंदु रूप ब्रह्म वामाशक्ति है क्योंकि वही विश्व का वमन (यानी उत्पन्न) करती है-
ब्रह्म बिंदुर महेशानि वामा शक्तिर्निगते

प्रलय चार प्रकार है :-

1.नित्य प्रलय : वेंदांत के अनुसार जीवों की नित्य होती रहने वाली मृत्यु को नित्य प्रलय कहते हैं। जो जन्म लेते हैं उनकी प्रति दिन की मृत्यु अर्थात प्रतिपल सृष्टी में जन्म और मृत्य का चक्र चलता रहता है|

2.आत्यन्तिक प्रलय : आत्यन्तिक प्रलय योगीजनों के ज्ञान के द्वारा ब्रह्म में लीन हो जाने को कहते हैं। अर्थात मोक्ष प्राप्त कर उत्पत्ति और प्रलय चक्र से बाहर निकल जाना ही आत्यन्तिक प्रलय है।

3.नैमित्तिक प्रलय : वेदांत के अनुसार प्रत्येक कल्प के अंत में होने वाला तीनों लोकों का क्षय या पूर्ण विनाश हो जाना नैमित्तिक प्रलय कहलाता है। पुराणों अनुसार जब ब्रह्मा का एक दिन समाप्त होता है, तब विश्व का नाश हो जाता है। चार हजार युगों का एक कल्प होता है। ये ब्रह्मा का एक दिन माना जाता है। इसी प्रलय में धरती या अन्य ग्रहों से जीवन नष्ट हो जाता है|
नैमत्तिक प्रलयकाल के दौरान कल्प के अंत में आकाश से सूर्य की आग बरसती है। इनकी भयंकर तपन से सम्पूर्ण जलराशि सूख जाती है। समस्त जगत जलकर नष्ट हो जाता है। इसके बाद संवर्तक नाम का मेघ अन्य मेघों के साथ सौ वर्षों तक बरसता है। वायु अत्यन्त तेज गति से सौ वर्ष तक चलती है।

4.प्राकृत प्रलय : ब्राह्मांड के सभी भूखण्ड या ब्रह्माण्ड का मिट जाना, नष्ट हो जाना या भस्मरूप हो जाना प्राकृत प्रलय कहलाता है। वेदांत के अनुसार प्राकृत प्रलय अर्थात प्रलय का वह उग्र रूप जिसमें तीनों लोकों सहित महतत्त्व अर्थात प्रकृति के पहले और मूल विकार तक का विनाश हो जाता है और प्रकृति भी ब्रह्म में लीन हो जाती है अर्थात संपूर्ण ब्रह्मांड शून्यावस्था (लिंग)में हो जाता है। न जल होता है, न वायु, न अग्नि होती है और न आकाश और ना अन्य कुछ।

#अघोर #आर्यवर्त

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