अद्भुत वीर रस काव्य!!!

इतिहास विजेता को गाता, हम माथा अपने धरतें हैं।
उनकी कागद लेखी पर, भाई से भाई लडते हैं।
मकसद उनका लड़वाना था, अपना लोहा मनवाना था।
अपने जातिय गौरव पर, हमको नीचा दिखलाना था।
अपना मकसद वे सफल किये, हमको जड़ से बेदखल किये।
ग्यानी से मूरख अच्छा है, नियम कठिन से सरल किये।

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जिसने भारत को खोजा, जीभर कर इसको नोचा।
बोनस में अपनी पीढी़ को, बनवा गये इसका बोझा।
बनवा कर इसका बोझा,
कर दी सुल्तानी पक्की।
चाहे जहाज का कोचवान,
पप्पू परदेसी झक्की।
युगद्रष्टा की नजर लिये,
डूब गये थे नाले में।
चले चीन से लड़ने पैदल,
लाठी बल्लम भाले में।
भरी सभा लिक्खाड़ भांट से,
चुन चुन चारण बंदो से।
इनमें से कुछ परम शिखंडी,
कुछ मिलते जयचंदों से।
कुटिल, कुपंथी, कुंठित कुत्सित,
बिरत प्रेम अभिमान से।
यही हो गये भाग्य विधाता,
भारत घिर गया घपलों से।
देशी अंग्रेजों की काया,
भारी है कितनी असलों से।
असली वाले नेपथ्य गये,
भर गयी सभा जयचंदों से।

खून में जिनके भाईचारा,
कम्यूनल कहा जलील किया।
बटवारे वाले लीगी दल को,
सेकुलर कह गुड फील किया।
केरल में सरकार चलाई,
मुस्लिम लीगी दम पर।
यूपी में अपमान किया,
संतो को बेदम कर।

काशी मथुरा हल हो जाते,
सोमनाथ संग चुटकी में।
लाठी गोली की बात नहीं,
सब हो जाता घुडकी में।

नेहरू गुलाब की परमप्रीत,
सीने पर जग ने देखा है।
पर कांटे कितने चुभो गये,
अपने हेठी के धंधों से।

यदि होता कोई जुगाड़, लिख देते हर पर्वत पठार।
नेहरू गांधी, नेहरू गांधी, नेहरू गांधी का चमत्कार।

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काबुल कांधार हमारे थे,
ईरान तुरान दुलारे थे।
अब ढाका हमसे छूट गया,
लाहौर का नाता टूट गया।
गर अभी नींद से नहीं जगे,
मिट जायेंगे हम पक्का है।
यदि जाति पाति में बटे रहे,
लगना निश्चित धक्का है।

सदियाँ कितनी बीत गयीं, आकर हमें जगाने में।
नीद हमारी गहरी है,
माहिर हम ठोकर खाने में।

नयी गुलामी ढूंढ लिया,
अब जातिवाद के माने में।
कोई क्षत्री है कोई खत्री है,
कोई यादव लाठी ताने है।
दुश्मन से कैसी गिला ब्यथा,
अपने ही लगे सताने हैं।

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जो कटे मूली सरीखे, उनकी बची पहचान हैं।
हम बड़े ज्ञानी सुधी, सब जानकर अनजान हैं।

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प्रिय हमको है रही गुलामी, कैसे खुलकर हँसे हंसायें।
थोडा़ रोओ तुम भी खुलकर, हम भी कुछ आँसू टपकायें।
सदियों का है रोग पुराना, झटपट कैसे इसे मिटायें।
जूते खाना बहुत सुहाना, दो तुम खाना दो हम खायें।
आओ मिलकर बैर निभाएं, फिर से कोई बाबर लायें।

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दर्द हमसे भी हुआ, इतिहास में दाखिल नहीं।
दिल दुखायें जान कर, इस काम के काबिल नहीं।
सिर झुकाये सृष्टि के, हर छाप के विश्वास को।
तिसपर भी हमको सहनशीली, सेक्युलरिज्म हासिल नहीं।

राम केशव की धरा पर, लक्ष्य ही अपमान है।
हम बड़े ज्ञानी सुधी, सब जानकर अनजान हैं।

सिर कटे मीनार का, दीदार कर थे जो अघाते।
शीश दानी सिख गुरु के, वंश ईंटों में चुनाते।
वे नये अब रूप धर, हम को सिखाने आ गये।
हमको हमारे घर का रस्ता, फिर दिखाने आ गये।

हम परायें हैं विदेशी, अब हुआ एेलान है।
हम बड़े ज्ञानी सुधी, सब जानकर अनजान हैं।

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जंगल के कटने का किस्सा न होता।
कुल्हाड़ी में अगर लकड़ी का हिस्सा न होता।

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