राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे। सहस्रनाम तत्तुल्यं रामनाम वरानने॥ – श्रीरामरक्षास्तोत्रम्

राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे। सहस्रनाम तत्तुल्यं रामनाम वरानने॥ – श्रीरामरक्षास्तोत्रम् जिस प्रकार भगवान् वेद निरस्त समस्तपुंदोषशंकापंककलंकावकाश तथा भगवन्निश्वास होने से भ्रम, प्रमाद, विप्रलिप्सा, करणापाटव आदि दूषणों से सर्वथा दूर तथा भगवान् की सत्ता में परमप्रमाण और भगवद्रूप ही हैं उसी प्रकार वेदार्थ के उपबृंहण रूप पुराण, संहिता एवं रामायण, महाभारत में कहे हुए मंत्रद्रष्टा महर्षियों के वाक्य भी वेद ही की भाँति परम प्रामाणिक हैं। इतना अन्तर अवश्य है कि वेदों में स्वतः प्रामाण्य है तथा स्मृति, पुराण, इतिहास आदि में परतः प्रामाण्य है अर्थात् स्मृति आदि का प्रामाण्य वेदसापेक्ष है और वेदों के प्रामाण्य में किसी की कोई अपेक्षा नहीं है। पर जैसे वेद स्वयं की कृपा से ही समझ में आ सकते हैं उन पर मानव की बुद्धि का कोई बस नहीं चलता उसी प्रकार पुराण आदि भी अपनी बुद्धि के बल पर नहीं समझे जा सकते। वे तो अपनी अहैतुकी अनुकम्पा से ही साधकों को कभी-कभी अपना मर्म बता देते हैं। इसका एक अनुभव मुझे अभी-अभी अर्थात् ८-९-९८ की ब्रह्मवेला में हुआ। श्रीरामरक्षास्तोत्र का प्रायः बहुतेरे आस्तिक जन...