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क्यों मनुस्मृति को कोसना, गाली देना और जलाना सिर्फ हमारी अज्ञानता की निशानी है - खंडन!!

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क्यों मनुस्मृति को कोसना, गाली देना और जलाना सिर्फ हमारी अज्ञानता की निशानी है मनुस्मृति एक ऐसा ग्रंथ है जो पहले स्वार्थी लोगों की मिलावट का शिकार हुआ और फिर हमारी राजनीति का वह बीती शताब्दी का तीसरा दशक था और 1927 का साल. बाबा साहब अंबेडकर ने कुछ लोगों के साथ मिलकर ‘मनुस्मृति’ की तत्कालीन प्रति जलाई थी. संयोग से उसी साल महात्मा गांधी दक्षिण भारत के गांवों और कस्बों में ब्राह्मण-अब्राह्मण और वर्ण-धर्म जैसे विषयों पर लोगों से चर्चा कर रहे थे. 16 सितंबर, 1927 को तमिलनाडु के तंजौर में उनका पूरा भाषण ही इन्हीं पर केंद्रित था. इन विषयों पर उनसे हुए तीखे-मीठे सवाल-ज़वाब का महादेव देसाई द्वारा किया गया समेकन यंग इंडिया के 24 नवंबर, 1927 के अंक में छपा था. इन सवालों में से दो सवाल सीधे मनुस्मृति पर ही केंद्रित कुछ इस तरह थेे : सवाल - मनुस्मृति में (वर्ण-धर्म का) जो सिद्धान्त दिया गया है क्या आप उसका समर्थन करते हैं? गांधीजी - सिद्धांत उसमें है, लेकिन उसका व्यावहारिक रूप मुझे पूरी तरह जमता नहीं. इस ग्रंथ के कई अंश हैं जिन पर गंभीर आपत्तियां हो सकती हैं. मुझे लगता है कि वे अंश उसमें बाद में ...