अद्भुत पद्य, अद्भुत काव्य

पल्लव!!
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अरे! ये पल्लव-बाल!
सजा सुमनों के सौरभ-हार
गूँथते वे उपहार;
अभी तो हैं ये नवल-प्रवाल,
नहीं छूटो तरु-डाल;
विश्व पर विस्मित-चितवन डाल,
हिलाते अधर-प्रवाल!
दिवस का इनमें रजत-प्रसार
उषा का स्वर्ण-सुहाग;
निशा का तुहिन-अश्रु-श्रृंगार,
साँझ का निःस्वन-राग;
नवोढ़ा की लज्जा सुकुमार,
तरुणतम-सुन्दरता की आग!
कल्पना के ये विह्वल-बाल,
आँख के अश्रु, हृदय के हास;
वेदना के प्रदीप की ज्वाल,
प्रणय के ये मधुमास;
सुछबि के छायाबन की साँस
भर गई इनमें हाव, हुलास!
आज पल्लवित हुई है डाल,
झुकेगा कल गुंजित-मधुमास;
मुग्ध होंगे मधु से मधु-बाल,
सुरभि से अस्थिर मरुताकाश!

– सुमित्रानंदन पंत

वसंत श्री!!!
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उस फैली हरियाली में,
कौन अकेली खेल रही मा!
वह अपनी वय-बाली में?
सजा हृदय की थाली में–

क्रीड़ा, कौतूहल, कोमलता,
मोद, मधुरिमा, हास, विलास,
लीला, विस्मय, अस्फुटता, भय,
स्नेह, पुलक, सुख, सरल-हुलास!
ऊषा की मृदु-लाली में–
किसका पूजन करती पल पल
बाल-चपलता से अपनी?
मृदु-कोमलता से वह अपनी,
सहज-सरलता से अपनी?
मधुऋतु की तरु-डाली में–

रूप, रंग, रज, सुरभि, मधुर-मधु,
भर कर मुकुलित अंगों में
मा! क्या तुम्हें रिझाती है वह?
खिल खिल बाल-उमंगों में,
हिल मिल हृदय-तरंगों में!

– सुमित्रानंदन पंत

मोह!!
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छोड़ द्रुमों की मृदु-छाया,
तोड़ प्रकृति से भी माया,
बाले! तेरे बाल-जाल में कैसे उलझा दूँ लोचन?
भूल अभी से इस जग को!
तज कर तरल-तरंगों को,
इन्द्र-धनुष के रंगों को,
तेरे भ्रू-भंगों से कैसे बिंधवा दूँ निज मृग-सा मन?
भूल अभी से इस जग को!
कोयल का वह कोमल-बोल,
मधुकर की वीणा अनमोल,
कह, तब तेरे ही प्रिय-स्वर से कैसे भर लूँ सजनि! श्रवन?
भूल अभी से इस जग को!
ऊषा-सस्मित किसलय-दल,
सुधा रश्मि से उतरा जल,
ना, अधरामृत ही के मद में कैसे बहला दूँ जीवन?
भूल अभी से इस जग को!

– सुमित्रानंदन पंत

विनय!!
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मा! मेरे जीवन की हार
तेरा मंजुल हृदय-हार हो,
अश्रु-कणों का यह उपहार;
मेरे सफल-श्रमों का सार
तेरे मस्तक का हो उज्जवल
श्रम-जलमय मुक्तालंकार।

मेरे भूरि-दुखों का भार
तेरी उर-इच्छा का फल हो,
तेरी आशा का शृंगार;
मेरे रति, कृति, व्रत, आचार
मा! तेरी निर्भयता हों नित
तेरे पूजन के उपचार–
यही विनय है बारम्बार।

– सुमित्रानंदन पंत

झर पड़ता जीवन-डाली से!!
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झर पड़ता जीवन-डाली से
मैं पतझड़ का-सा जीर्ण-पात!–
केवल, केवल जग-कानन में
लाने फिर से मधु का प्रभात!

मधु का प्रभात!–लद लद जातीं
वैभव से जग की डाल-डाल,
कलि-कलि किसलय में जल उठती
सुन्दरता की स्वर्णीय-ज्वाल!

नव मधु-प्रभात!–गूँजते मधुर
उर-उर में नव आशाभिलास,
सुख-सौरभ, जीवन-कलरव से
भर जाता सूना महाकाश!

आः मधु-प्रभात!–जग के तम में
भरती चेतना अमर प्रकाश,
मुरझाए मानस-मुकुलों में
पाती नव मानवता विकास!

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मधु-प्रात! मुक्त नभ में सस्मित
नाचती धरित्री मुक्त-पाश!
रवि-शशि केवल साक्षी होते
अविराम प्रेम करता प्रकाश!

मैं झरता जीवन डाली से
साह्लाद, शिशिर का शीर्ण पात!
फिर से जगती के कानन में
आ जाता नवमधु का प्रभात!

– सुमित्रानंदन पंत

याचना!!
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बना मधुर मेरा जीवन!
नव नव सुमनों से चुन चुन कर
धूलि, सुरभि, मधुरस, हिम-कण,
मेरे उर की मृदु-कलिका में
भरदे, करदे विकसित मन।

बना मधुर मेरा भाषण!
बंशी-से ही कर दे मेरे
सरल प्राण औ’ सरस वचन,
जैसा जैसा मुझको छेड़ें
बोलूँ अधिक मधुर, मोहन;
जो अकर्ण-अहि को भी सहसा
करदे मन्त्र-मुग्ध, नत-फन,
रोम रोम के छिद्रों से मा!
फूटे तेरा राग गहन,
बना मधुर मेरा तन, मन!

– सुमित्रानंदन पंत

मौन निमंत्रण!!
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स्तब्ध ज्योत्सना में जब संसार
चकित रहता शिशु सा नादान ,
विश्व के पलकों पर सुकुमार
विचरते हैं जब स्वप्न अजान,
न जाने नक्षत्रों से कौन
निमंत्रण देता मुझको मौन !
सघन मेघों का भीमाकाश
गरजता है जब तमसाकार,
दीर्घ भरता समीर निःश्वास,
प्रखर झरती जब पावस-धार ;
न जाने ,तपक तड़ित में कौन
मुझे इंगित करता तब मौन !
देख वसुधा का यौवन भार
गूंज उठता है जब मधुमास,
विधुर उर के-से मृदु उद्गार
कुसुम जब खुल पड़ते सोच्छ्वास,
न जाने, सौरभ के मिस कौन
संदेशा मुझे भेजता मौन !
क्षुब्ध जल शिखरों को जब बात
सिंधु में मथकर फेनाकार ,
बुलबुलों का व्याकुल संसार
बना,बिथुरा देती अज्ञात ,
उठा तब लहरों से कर कौन
न जाने, मुझे बुलाता कौन !
स्वर्ण,सुख,श्री सौरभ में भोर
विश्व को देती है जब बोर
विहग कुल की कल-कंठ हिलोर
मिला देती भू नभ के छोर ;
न जाने, अलस पलक-दल कौन
खोल देता तब मेरे मौन  !
तुमुल तम में जब एकाकार
ऊँघता एक साथ संसार ,
भीरु झींगुर-कुल की झंकार
कँपा देती निद्रा के तार
न जाने, खद्योतों से कौन
मुझे पथ दिखलाता तब मौन !
कनक छाया में जबकि सकल
खोलती कलिका उर के द्वार
सुरभि पीड़ित मधुपों के बाल
तड़प, बन जाते हैं गुंजार;
न जाने, ढुलक ओस में कौन
खींच लेता मेरे दृग मौन !
बिछा कार्यों का गुरुतर भार
दिवस को दे सुवर्ण अवसान ,
शून्य शय्या में श्रमित अपार,
जुड़ाता जब मैं आकुल प्राण ;
न जाने, मुझे स्वप्न में कौन
फिराता छाया-जग में मौन !
न जाने कौन अये द्युतिमान !
जान मुझको अबोध, अज्ञान,
सुझाते हों तुम पथ अजान
फूँक देते छिद्रों में गान ;
अहे सुख-दुःख के सहचर मौन !
नहीं कह सकता तुम हो कौन !

– सुमित्रानंदन पंत

परिवर्तन!!
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१)
अहे निष्ठुर परिवर्तन!
तुम्हारा ही तांडव नर्तन
विश्व का करुण विवर्तन!
तुम्हारा ही नयनोन्मीलन,
निखिल उत्थान, पतन!
अहे वासुकि सहस्र फन!
लक्ष्य अलक्षित चरण तुम्हारे चिन्ह निरंतर
छोड़ रहे हैं जग के विक्षत वक्षस्थल पर !
शत-शत फेनोच्छ्वासित,स्फीत फुतकार भयंकर
घुमा रहे हैं घनाकार जगती का अंबर !
मृत्यु तुम्हारा गरल दंत, कंचुक कल्पान्तर ,
अखिल विश्व की विवर
वक्र कुंडल
दिग्मंडल !

(२)
आज कहां वह पूर्ण-पुरातन, वह सुवर्ण का काल?
भूतियों का दिगंत-छबि-जाल,
ज्योति-चुम्बित जगती का भाल?
राशि राशि विकसित वसुधा का वह यौवन-विस्तार?
स्वर्ग की सुषमा जब साभार
धरा पर करती थी अभिसार!
प्रसूनों के शाश्वत-शृंगार,
(स्वर्ण-भृंगों के गंध-विहार)
गूंज उठते थे बारंबार,
सृष्टि के प्रथमोद्गार!
नग्न-सुंदरता थी सुकुमार,
ॠध्दि औ’ सिध्दि अपार!
अये, विश्व का स्वर्ण-स्वप्न, संसृति का प्रथम-प्रभात,
कहाँ वह सत्य, वेद-विख्यात?
दुरित, दु:ख, दैन्य न थे जब ज्ञात,
अपरिचित जरा-मरण-भ्रू-पात!

(३)
अह दुर्जेय विश्वजित !
नवाते शत सुरवर नरनाथ
तुम्हारे इन्द्रासन-तल माथ;
घूमते शत-शत भाग्य अनाथ,
सतत रथ के चक्रों के साथ !
तुम नृशंस से जगती पर चढ़ अनियंत्रित ,
करते हो संसृति को उत्पीड़न, पद-मर्दित ,
नग्न नगर कर,भग्न भवन,प्रतिमाएँ खंडित
हर लेते हों विभव,कला,कौशल चिर संचित !
आधि,व्याधि,बहुवृष्टि,वात,उत्पात,अमंगल
वह्नि,बाढ़,भूकम्प –तुम्हारे विपुल सैन्य दल;
अहे निरंकुश ! पदाघात से जिनके विह्वल
हिल-इल उठता है टलमल
पद दलित धरातल !

(४)
जगत का अविरत ह्रतकंपन
तुम्हारा ही भय -सूचन ;
निखिल पलकों का मौन पतन
तुम्हारा ही आमंत्रण !
विपुल वासना विकच विश्व का मानस-शतदल
छान रहे तुम,कुटिल काल-कृमि-से घुस पल-पल;
तुम्हीं स्वेद-सिंचित संसृति के स्वर्ण-शस्य-दल
दलमल देते,वर्षोपल बन, वांछित कृषिफल !
अये ,सतत ध्वनि स्पंदित जगती का दिग्मंडल
नैश गगन – सा सकल
तुम्हारा हीं समाधि स्थल !

– सुमित्रानंदन पंत




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