हाँ सखियों!!दुनिया के सिरे का अंत अपने घर में ही होता है"।। ।।अग्निकारिष्टकम्-8।।
।। हाँ सखियों!!दुनिया के सिरे का अंत अपने घर में ही होता है"।।
।।अग्निकारिष्टकम्-8।।
"जैन-मत" के एक महान "आचार्य हरिभद्र"द्वारा प्रकाशित"अग्निकारिष्टकम्"की बाल प्रबोधिनी का आठवाँ पुष्प मैं अपने प्रियतम श्री कृष्णजी के चरणों में अर्पित कर रही हूँ--
इष्टापूर्तं न मोक्षाङ्गं सकामस्योपवर्णितम् ।
अकामस्य पुनर्योक्ता सैव न्याय्याग्निकारिका ।।8।।
इष्टापूर्तं (यज्ञादि पुण्य कार्यों का अनुष्ठान) मोक्ष का कारण नहीं है, क्योंकि ये सकाम कहे गये हैं। निष्काम व्यक्ति के लिये जो भावाग्निकारिका कही गयी है वही अग्निकारिका न्यायसम्मत है ।।8।।
मेरी आत्मप्रिय सखियों !!अब पुनः कहते हैं कि--
"इष्टापूर्तं न मोक्षाङ्गं सकामस्योपवर्णितम्"
मैं इसे प्रकारांतर से समझने का प्रयास करती हूँ!इसे अपने ऊपर ही घटा कर देखती हूँ!!मेरे माँ-बाबा के द्वारा सृजित मेरे इस शरीर में आचरण और संस्कारों की दृष्टि से जीस "मेरे-जीव"का प्रवेश हुवा है,कोई आवस्यक नहीं है कि मैं पूर्व जन्मों में मानवी ही रही होऊँ, हो सकता है कि मैं"कूकरी,शूकरी,कीट,पतँड़्ग या कुछ और ही रही होऊँ तो उन जन्मों के सुषुप्त संस्कार भी मैं अपने साथ इस देहमें भी लेकर आ ही गयी!!
भावना तथा संवेदना की दृष्टि से,स्नेह और मातृत्व की प्रेमास्पदा "स्त्री-स्वरूपिणी"मूर्ति--"मैं"-- किसी भी कर्मकाण्ड की अपेक्षा नहीं रखती!! मेरा तो एक ही कार्य है-अपने पती की सेवा करना, अपनी"कुल- परम्परा"के विस्तार हेतु संतानों उत्पत्ति करते हुवे उन्हें योग्यतम् संस्कारों से सुवासित करना!!यह मेरी नियति नहीं बल्कि प्राकृतिक रूप से मेरा"वेदोक्त- कर्तब्य"ही है!!
किंतु बहेकावे में आकर,वेदोक्त शिक्षा के अभावमें मात्र पाश्चात्य शिक्षा के अंधानुकरण के कारण,ध्यान दें मैं दो बातें पृथक-पृथक कहेना चाहती हूँ--
(1)=अपनी बच्चियों को वेदोक्त संस्कारजन्य शिक्षा अवस्य ही और बाल्यावस्था से ही देना चाहिये!!
(2)= अपनी बच्चियों को आधुनिक विज्ञानादि जन्य शिक्षा तत्परता पूर्वक और लड़कों के समकक्ष ही देना चाहिये!!
और इसी के कारण मेरी बच्चियाँ या तो मात्र पौराणिक अधूरी शिक्षाओं के कारण अंधविश्वास की चपेट में आ जाती हैं,और या तो मात्र पाश्चात्य शिक्षा के कारण महत्वाकाँञ्क्षा और महिला सशक्तिकरण के नामपर New Femalist भयानक रोग को पाल बैठती हैं!! मैं समझती हूँ कि मात्र हम स्त्रीयों में ही यह सामर्थ्य है कि हम नारीत्वकी ममतामयी प्राकृतिक समर्पण की मूख्य- भूमिका में होने के कारण पुरूषों से,अर्थात अग्नि से प्रतिस्पर्धा न करें!!
बल्कि उनकी ऋत-सोम बनकर ,उनकी प्रेरणा, आकाञ्छा, सौभाग्यशाली प्रदात्री बनकर,उनके यज्ञों की सामग्री बनकर पारिवारिक पृश्ठभूमि और आवस्यकतानुसार नौकरी-ब्यापार आदि करते हुवे भी-उन्हें आजीवन अपने प्रति आकर्षित रख सकती हैं!!
अब इस सूत्रमें आचार्य श्री कहते हैं कि अपनी महत्वाकांञ्छाओं की पूर्ति के लिये किये जाने वाले कोई भी कर्म अंततः हमें अपनी बढती जाती तृष्णा के लिये भटकाते ही हैं!! जबकि मानव जीवन का उद्रेश्य तो इससे पृथक अपने लिये नीहित कर्मों को निःस्वार्थ रूप से प्रतिपादित करने में ही उचित और नीहित भी है!और आधुनिकता की अंधी दौड़ में कहीं हम पिछड़ न जायें इसलिये अपने अस्तित्व को सुरक्षित रखने के प्रयास में मैं अंततः अपने सह-अस्तित्व को ही खो बैठती हूँ!! अग्नि की खोजमें,फलों की प्राप्ति की खोज में दौड़ना बंद करना ही होगा मुझे!!
कहते हैं न कि"दुनिया के सिरे का अंत अपने घर में ही होता है"
" अकामस्य पुनर्योक्ता सैव न्याय्याग्निकारिका"
और यदि मैं शास्त्राज्ञानुसार अकाम्य,निष्काम भावना से अपने शरीरों,अस्तित्वों और धार्मिक,वैदिक, भारतीय विशुद्ध वैज्ञानिकीय परम्पराओं को पालन करते हुवे अपने "नारी-धर्म" का पालन करती हूँ!!
और उसी प्रकार मेरे पुरूष समाज के घटक भी इसी प्रकार अपने पुरूषोचित् कर्तब्यों का पालन करते हैं,तो मेरा घर,समाज ही क्या सम्पूर्ण राष्ट्र ही अपने पुरातन वैभव को प्राप्त कर हमारी आने वाली पीढियाँ कृत- कृत्य हो जायेंगी!!
और अंत में यह भी कहना उचित समझती हूँ कि हो सकता है मैं स्त्री हूँ,स्वभाव से ही "माया,चँञ्चला, उच्रञ्खल"मोहिनी,और यह भी हो सकता है कि--
"त्रीया चरित्रम् पूरूशष्य भाग्यम्,देवो न जानाति मनुष्य कुतश्च्।।"
यह जो जो त्रिया होती हैं न,ये "त्रिगुणों की समष्टि"के कारण ही तो हमारा नाम"त्रिया"ऐसा पड़ा है,हममें सात्विक-राजसिक-तामसिक तीनों ही गुणों को विधाता ने आपके लिये आपके भाग्य और चरित्र निर्धारण के लिये कूट-कूट कर भर रक्खा है!!हम आपकी,अपनी संतानों की भाग्य-विधाता हैं!!
हमारी महत्ता,उत्कृष्टता,श्रेष्ठता,अथवा या फिर घृणिततम् निर्कृष्टता आपके भाग्य में है आप-चाहे जैसे रंगों में हमे ढाल सकते हो!! तभी तो कहते भी हैं कि जो अपने पूरुषार्थ से अपने भाग्य का निर्माण करता है वही तो "पुरूष"है!! और हाँ मेरे सखा-गण यही वस्तुतः"भावाग्निकारिका"भी है!!
यही आचार्य हरिभद्रजी का अभिप्राय है!!
शेष पुनः अगले अंकमें ......
#आर्यवर्त
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