--।।श्रेष्ठ साधिका तो धूमावती की ही आकाञ्छा करती हैं।।-- ।।अग्निकारिष्टकम्-6।।
--।।श्रेष्ठ साधिका तो धूमावती की ही आकाञ्छा करती हैं।।--
।।अग्निकारिष्टकम्-6।।
आर्यावर्तीय संस्कृति "जैन-मत" के एक महान "आचार्य हरिभद्र"द्वारा प्रकाशित"अग्निकारिष्टकम्" की बाल प्रबोधिनी का षष्ठम् पुष्प मैं अपने प्रियतम श्री कृष्णजी के चरणों में अर्पित कर रही हूँ--
धर्मार्थं यस्य वित्तेहा तस्यानीहागरीयसी ।
प्रक्षालनाद्धि पङ्कस्य दूरादस्पर्शनं वरम् ।।6।।
धर्म के लिये जिसे धन की अभिलाषा है उसके लिये तो धन की इच्छा न करना ही श्रेयस्कर है, क्योंकि पङ्क का प्रक्षालन करने की अपेक्षा उससे दूर रहना ही श्रेष्ठ है ।।6।।
मेरी आत्मप्रिय सखियों !!अब पुनः कहते हैं कि--
"धर्मार्थं यस्य वित्तेहा तस्यानीहागरीयसी"
मेरे स्वामीजी"परम-इष्ट लोक"अर्थात परमेष्ठी लोक के स्वामी हैं,और इसी लोक को कृष्णार्पित गृँथों में "गो-लोक"भी कहा गया है!!
प्राचीन काल से ही धनों में धन"गो-धन"ही माना जाता रहा है,"गौ"ही लक्ष्मी,धन,स्वर्ण,रजत,मुद्रादि की प्राप्ति में हेतु कही गयी है!! और एक अद्भुत बात और भी है कि"गो लोक--सोमात्मक लोक"कहा गया है!! क्यों कि उस लोक की स्वामिनी तो "राधा-रानी"लक्ष्मी,गौवें ही हैं न!!
और लक्ष्मीजी मेरे प्रियतमजी की"शक्ति-सामर्थ्य, काँति,करूणा"को ही कहते हैं!! अब एक बात और भी बताती हूँ!! इन्हीं लक्ष्मीजी की एक और बड़ी दीदी हैं--
"धूमावती"--विधवा,अलक्ष्मी,क्षुधा,म्लाना,तृषातुरा और वही ज्येष्ठा भी कही जाती हैं!! इनका एक भब्य दीब्यालय दतिया में आपने कदाचित् होगा!! ये "दश महाविद्याओं"में भी ज्येष्ठा कही गयी हैं!! और एक अद्भुत् किदवंति रूपेण दृश्टाँतानुसार इन्हे इतनी क्षुधा लगी कि ये अपने"पती-शिव"को ही खा गयीं!! इसी कारण नासमझ लोग कहते हैं कि--
"अलक्ष्मीं नाशयाम्हम्"
अब मैं आपको एक बात बताती हूँ--जब मेरे घर श्रेष्ठ मार्ग से लक्ष्मीजी आती हैं तो श्री,वैभव,काँति,आरोग्य, श्रद्धा,शाँति का साम्राज्य स्थापित कर देती हैं!! और यहीं से आपकी परिक्षा का भी प्रारम्भ हो जाता है!! धीरे-धीरे क्रमशः मैं उलझती जाती हूँ!! उन्हे पाकर-
" सत्ता पाई काहि मद नाँहीं"
मैं डूब जाती हूँ उन्ही सिध्दियों में!! अब मैं आपको प्रथम ही एक बात बता चुकी हूँ कि-लक्ष्मीजी"माया स्वरूपिणी चँञ्चला"हैं!! सोमात्मिका हैं!! चन्द्रमा के समान"घटती-बढती"रहती हैं!!
चाहे मैं कितना भी इनका उपयोग धर्मार्थ करूँ किंतु साथ ही साथ मैं इनका उपभोग भी करूँगी ही!! क्यों कि"चँञ्चलः ही मनः कृष्णः" मेरा मन चन्द्रमा के द्वारा संचालित होता है!! और क्रमशः इस लक्ष्मी का उपयोग-"उपभोगों"में बदल ही जाता है!! क्यों कि क्षुधा और पिपासा से मुक्त होना असंभव है!! और धीरे धीरे मेरी यह भूख"धूमावती बन जाती है"
"स्व-स्वामी धातिनी"
यहतो नकारात्मक स्वरूप है"माँ धूमावती का"
तभी तो कबीर कहते हैं कि--
कबिरा इतना दीजिये,जामें कुटुम्ब समाय।
मैं भी भूखा ना रहूँ,आयो साधु न भूखा जाये।।"
और इससे भी आगे बढकर गोरखनाथजी कहते हैं कि--
बस्ती में रहेना मेरे भाई"माँगी के खाना जी।
और टूकड़े में टुकड़ा कर देना मेरे लाल।।
तो इसे ही स्पष्ट करते हुवे आचार्यजी कहतेहैं कि--
" प्रक्षालनाद्धि पङ्कस्य दूरादस्पर्शनं वरम् "
यदि धन आयेगा तो साथ ही मद और तृष्णा भी कभी न कभी आयेगी ही!! यह तो एक ऐसा कीचड़ है कि जिसे आप "दलदल"कह सकती हैं!! इसमें एक बार यदि मैं फँस गयी तो इससे निकलना,इस कीचड़ को फिर धोना, इस नीन्यानबे के चक्कर से मुक्त होना बड़ा ही दुसाध्य है!! क्यों कि इस कीच में जो कमल दिखता है उसे पाने का भ्रम,लालच मुझे बारम्बार इसकी तरफ खींचता जाता है!!
जीवन की अंधी दौड़ के पीछे,भौतिकवाद की भयानक अंधी राह पर मन का स्वभाव है दौड़ने का और मन के पीछे बुद्धि और इसके साथ ही शरीर और इन्द्रियाँ भी दोड़ती ही जाती हैं इस कीचड़ की तरफ!! तो इससे अच्छा तो यही है कि धन प्राप्ति की लालसा ही न हो!!बस--"कर्मण्ये वाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन"
"हाँ सखी!आप जैसी श्रेष्ठ साधिका तो धूमावती की ही आकाञ्छा करती हैं!!और यही सकारात्मक स्वरूप हैं माँ धूमावती का!!
यही आचार्य हरिभद्रजी का अभिप्राय है!!
शेष पुनः अगले अंकमें ......
#आर्यवर्त
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