आगम शास्त्र
आदेश आदेश गुरूजी अघोरी जी को अलख आदेश
तन्त्र शास्त्रों के अनुसार तन्त्र का मूल आधार कोई पुस्तक नहीं है , वह अपौरुषेय ज्ञान विशेष है ।
ऐसे ज्ञान का नाम ही आगम है ।
यह ज्ञानात्मक आगम शब्दरुप में अवतरित होता है ।
तन्त्र मत में परा -वाक् ही अखण्ड आगम है ।
पश्यन्ति अवस्था में यह स्वयं वेद्य रुप में प्रकाशित होता है और अपना प्रकाश अपने साथ रखता है ।
यही साक्षात्कार की अवस्था है , यहाँ द्वितीय या अपर में ज्ञान संचार करने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता ।
वही ज्ञान मध्यमा वाक् में अवतीर्ण होकर शब्द का आकार धारण करता हैं और यह शब्द चित्तात्मक है ।
इसी भूमि में गुरु -शिष्य भाव का उदय होता है ।
फलतः ज्ञान एक आधार से अपर आधार में संचारित होता है ।
विभिन्न शास्त्रों एवं गुरु परस्पराओं का प्राकट्य मध्यमा भूमि में ही होता है ।
वैखरी में वह ज्ञान या शब्द जब स्थूल रुप धारण करता है , तब वह दूसरों के इन्द्रिय का विषय बनता है ।
उपर्युक्त संक्षित्प विवेचन से प्रतीत होगा कि वेद और तन्त्रों की मौलिक दृष्टि एक ही है यद्यपि वेद एक है किन्तु विभक्त होकर यह त्रयी या चतुर्विध होता है , अन्ततः वह अनन्त है।
{ वेदा अनन्ताः } यह भी वेद की ही वाणी है ।
आगमों की स्थिति भी ठीक इसी प्रकार की हैं ।
अवश्य ही तन्त्र की एक और भी दिशा है जिससे उसका वैदिक आदर्शो से किसी अंश में पार्थक्य प्रतीत होता है , और उस कारण से तान्त्रिक साधना का वैशिष्ट्य भी समझ में आता हैं ।
कुछ भी हो , ये सभी मिल कर भारतीय संस्कृति के अंगीभूत हो चुके है ।
जैसे बृहत् जलधारायें मिलकर नदी का रुप धारण करती है , और अन्त में महासमुद्र में विलीन हो जाती हैं।
वैसे ही वैदिक तान्त्रिक आदि अन्यान्य सांस्कृतिक -धारायें भारतीय संस्कृति में आश्रय -लाभ करती हैं और उसे विशाल से विशालत बनाती हैं ।
#अघोर
Comments
Post a Comment