संस्कारों नाम गुणांतराधानम्
संस्कारों नाम गुणांतराधानम्!
उपर्युक्त सुवचन का अर्थ है -
‘‘किसी व्यक्ति के गुणों में परिवर्तन लाना है यह तो परिवर्तन केवल संस्कारों के कारण ही होता है। संस्कारों का सही अर्थ है अच्छे परिणाम! जो अच्छे विचार, अच्छे आचरण तथा अच्छी आदतों से किये जाते हैं। हर कोई बच्चा जन्मते समय शारीरिक, वाचिक, मानसिक तथा आत्मिक दृष्टि से परिपूर्ण तथा शुद्ध नहीं होता है। इन कमियों की पूर्ति करने के लिए संस्कारों की नितान्त आवश्यकता होती है।
वस्तुतः प्राणी और मनुष्य में नैसर्गिक रूप से भेद है ही ! ईश्वर ने मनुष्य को बुद्धि का वरदान देकर, उसके जीवन में चार चाँद लगा दिये हैं। परंतु सच्चाई यह है कि, केवल बुद्धि के वरदान से मनुष्य अपनी सही एवं आवश्यक उन्नति नहीं कर सकता है। उसे संस्कारित होने की आवश्यकता होती है।
जब हम मनुष्य के उत्क्रांति काल का अध्ययन करते हैं तब हमें यह मालूम होता है कि, आज की मनुष्य की स्थिति और उŸक्रांति के आरंभिक काल के मनुष्य की स्थिति में जमीन - आसमान का फासला है। उŸक्रांति के आरंभिक काल में मनुष्य का आचरण किसी पशु के समान ही था। वह पशु जैसा ही जंगल में पेड़ के नीचे रहता था। कच्चा मांस, फल, फूल, अनाज खाकर अपनी जिंदगी बसर करता था। उसमें मनुष्य होने के कोई संस्कारिका या सांस्कृतिक, सामाजिक लक्षण मौजूद नहीं थे।
लेकिन धीरे-धीरे पर्यावरण, जीवन निसर्ग इन सब के साथ संघर्ष करते-करते, समझोता करके और उनसे अनेक प्रकार की शिक्षा सीख पाते-पाते, मनुष्य संस्कारित बना। अर्थात प्रकृति, जीवन एवं जगत के प्रभावों एवं परिणामों का ही यह फल था। इसलिए यह कहना जरा-सी भी अत्युक्ति नहीं होगी कि, संस्कृति का जन्म-स्थान संस्कार ही है। अच्छे, प्रशंसनीय, जीवन-जगत के लिए उपकारी एवं उपयुक्त गुणों को हासिल करने की प्रक्रिया को ही ‘संस्कार’ कहा जाता है।
संस्कारों का संबंध मनुष्य के व्यक्त्वि के साथ जुड़ा रहता है। जब संस्कृति का परिणाम जीवन पर बार-बार होता रहता है तब वह उसके छोटे दिमाग में समाहित हो जाता है। संस्कारों के प्रभावों से पूरा जीवन प्रकाशमान हो जाता है। अग्नि के समक्ष, पूजा-पाठ और मंत्रोच्चारण के साथ सारे सगे सबंधियों की उपस्थिति में, किये गये संस्कार, मन पर बहुत गहरा असर डालते हैं। संस्कारित व्यक्तिवों की यह खासियत रहती है कि, उनका जीवन, सोच-विचार, सलाह-मशबरा और कर्तृत्व भी हमेशा स्वास्थ्यपूर्ण एवं संतुलित रहता है।
संस्कार-गाथा की इन विशेषताओं के कारण हम चाहते हैं कि, हर बच्चे को उसकी बाल्यावस्था से ही अच्छे संस्कारों का पायस प्राप्त हो और वह अपनी छात्रावस्था में अत्यधिक सावधान होकर, हर क्षण का सदुप्रयोग करें और पूरी जिंदगी में यश की सारी चोटियों को पार करके अपना, अपने माँ-पिता-गुरूजन तथा देश का नाम रोशन करें। रहन-सहन में सादगी की संपन्नता होना और खयालों में उच्च श्रेणी का वास होना ये तो संस्कार-संम्पन्न व्यक्तित्व की निशानी होती है। ऐसा व्यक्ति ही विद्यार्थी-जीवन की सारी सम्पन्नताओं को हासिल करने में माहिर होता है। भगवान श्री शिवजी मंदिर में जलाभिषेक पात्र से भगवान शिवजी की पिण्डीपर पड़नेवाली बूँद तो संस्कारों का प्रतिक है। संस्कारों की प्रक्रिया भी इसी तरह बूँद-बूँद से अविरत कार्यरत होती रहती है।
वैसे तो ज्ञान और संस्कार ये दोनों बातें अगर भिन्न है, तो भी वे एक सिक्के के ही दो अंग है। शिक्षा के कारण ज्ञान की प्राप्ति होती है। परंतु सच्चाई यह है कि, जीवन की परिपूर्णता केवल ज्ञान से नहीं हो सकती है। उसी ज्ञान की सही उपयुक्तता प्राप्त होने के लिए अच्छे से अच्छे संस्कारों की नितान्त आवश्यकता भी होती है। मन की चंचलता ही मनुष्य की उन्नति में रोड़ा बननेवाली सबसे बड़ी आपिŸा है इसलिए श्री एकनाथ महाराज ने ईश्वर से यह विनम्र प्रार्थना की है कि,
‘‘ऐसी शक्ति दे हमें भगवंता,
जिससे मिटे मन की सब चंचलता।
मन पर हो सदा नियंत्रण,
जिससे टूटेगा उपाधि का बंधन।
एका जनार्दनी मन। एकाग्र करें बाँधकर।।’’ संत एकनाथ
मन की विशेषता यह है कि, उसमें विचारों की प्रक्रिया निरंतर जारी रहती है। वह आत्यंतिक अस्थिर होता है। वह कल्पना के परों पर सँवार होकर, पूरे विश्व की सैर करता रहता है। अगर हमारा मन स्थिर है तो हम अपने जीवन की मँजिल हासिल कर सकते हैं। उस यश के लिए मन पर अच्छे संस्कारों का प्रभाव डालने के लिए कतिपय बोध कथा, संस्कार कथा, तथा ऐतिहासिक कथाओं का सहारा लेना चाहिए। ऐसी कथाओं के माध्यम से हम विध्यार्थी के मन को सही रूप में और सही दिशा में अग्रसर कर सकते हैं। हर घर की एक संस्कारिक एंव सांस्कृतिक परम्परा रहती है। उसमें बच्चों के मन में विधायक सोच-विचार, श्रद्धा, विश्वास एवं आत्मविश्वास की शाक्ति वृदधिंगत करने के लिए हमें निरंतर प्रयत्नशील रहना चाहिए।
हर बच्चे की माँ, उसकी महत्वपूर्ण एवं आदिम संस्कारदात्री अर्थात पहला श्रेष्ठ गुरू है। माताजी के साथ-साथ पिताजी से भी उनका घना स्नेह एवं अपनापा रहता है। अतः माता-पिता के आत्यंतिक सम्पर्क के कारण बच्चे पर दोनों के भी संस्कार बड़ी सहजता से होते रहते हैं। परंतु हर बच्चा अपने सम्पर्क में आने वाले हर व्यक्ति से, हर प्रकार के प्रभाव अनुकरणात्मक रूप में निरंतर ग्रहण करता रहता है। अतः हर बड़े का यह महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व रहेगा कि, उनका घर में तथा सामाजिक स्तर पर ऐसा ही व्यक्तित्व रहे, जिसके कारण बच्चा कोई गलत, असंगत या विकृतप्रभाव का शिकार न हों।
हर बच्चा अनुकरण से सीखता रहता है। ऐसा कहा जाता है कि, बच्चे तो भगवान के घर के फूल होते हैं। वे अपनी प्रारंभिक अवस्था में बहुत नेक और दयाल होते हैं परंतु अपने आसपास के माहौल से उनपर जो प्रभाव डाला जाता है, उससे वे अनेक बातें सीखते रहते हैं- जैसे सम्मानयुक्त भय, अनुशासन, समय की पांबदी। ऐसे अच्छे संस्कारों का प्रभाव तो हर बच्चे के मन पर होना नितान्त आवश्यक बात हैं। परन्तु ये संस्कार किसी जबरदस्ती से या मार-पीट का सहारा लेकर अथवा किसी प्रकार की सजा का भय दिखाकर नहीं डाले जाते हैं। बच्चों का एका ‘बाल-मानस शास्त्र’ होता है। उसी के अनुसार हमें चाहिए कि हम उनसे बर्ताव करें। अतः उनके साथ हम बड़ी सहजता से, बिना किसी दबाव के, आत्यंतिक सम्मान के साथ, एवं मित्रता के रिश्ते को केन्द्र में रखकर सुसंवादी बनें। परिणामतः बच्चें भी मुक्त मन के साथ, हमसे बातें करेंगे। तथा इसी अनुभव का लाभ उनके उज्वल भविष्य एवं भविष्यकालीन जीवन में सुख-समृद्धि पाने के लिए अवश्य होगा। अर्थात विद्यार्थी जीवन में हुए ये संस्कार तो जीवन सफल बनाने के लिए चिरकाल साथ देनेवाले एवं प्रभावशाली होते है। इतनाही नहीं तो इन संस्कारों की मज़बूत नींव पर ही आज का छात्र कल के भारत का एक आदर्श नागरिक बन सकता है।
जब छत्रपती शिवाजी महाराज अपनीं माँ के साथ अपनी अंतरंग बातें करते रहते थे तब माँ साहबा जिजाऊ उनसे कहती थी कि ‘‘देखो शिवबा, भोसले घराने के पूर्वज थे श्री प्रभु रामचंद्रजी! श्री रामचंद्रजली ने दुष्ट रावण का वध किया और अपने प्रजाजनों को सुख की संपदा का दान किया जाधवों के पूर्वज थे श्री गोपाल कृष्ण जी! उन्होंने भी दुष्ट कंस का वध किया और अपने प्रजाजनों को सुख एवं शान्ति का वरदान दिया। यह बात गौर से सुनो कि, श्रीरामजी और श्री कृष्णजी के बाद तुम्हारा जन्म हुआ है। अरे, तुम भी दुष्टों का विनाश कर सकोगे। तुम भी दीन-गरीबों को अत्यधिक सुख का वरदान दे सकोगे!’’ माँ साहबा, की ऐसी प्रेरणात्मक बातें सुनकर बाल शिवजी में बहुत स्फूर्ति और उमंगे भर आती थी। उसी समय उन्हें श्रीराम, श्रीकृष्ण, बलभीम और श्रेष्ठ योद्धा अर्जुन का स्मारण हो जाता था। उनकी शौर्य कथाएँ उनके दिलों-दिमाग में सजग हो जाती थीं। और उनका मन भी यह सोचता रहता था कि, इन वीरों ने जिस तरह अपने प्राणों की बाज़ी लगाई और अपनी वीरश्री के श्रेष्ठ रूप को प्रकट करके दुष्ट-दुर्जनों का सर्वनाश किया और अपने प्रजा-जनों को सुख-शान्ति का वरदान दिया। ठीक उसी तरह मैं स्वयं भी अपने प्रजा-जनों को खुशियाँ, शान्ति तथा समाधान दे सकूॅगा लेकिन इस के लिए सबसे पहले मुझे अपने दुष्टों को केवल नाश नहीं तो, पूरा सर्वनाशा ही करना पडेगा!!
धीरे-धीरे उनके मन में से संस्कार और माँसाहबा द्वारा दिया गया सदुपदेश एवं प्ररेणा तीव्रतम बलवती होती गयी और उन्होंने बचपन में ही गुरू और माँ की प्रेरणा से ग्रहण किये अच्छे संस्कारों के बलपर अपनी माँ का सपना सच किया।
सारांश यह कि, शरीर को जैस अनाज, पानी और हवा की आवश्यकता होती है, ठीक वैसे ही दिमाग को अच्छे संस्कारों की नितान्त आवश्यकता होती है। संस्कारों के बिना मन और दिमाग सुसंस्कृत नहीं बन सकता। इसलिए बचपन में हर बच्चे को पहला संस्कार केंद्र उसका घर ही है। उसके माँ-पिता तथा घर के सभी बुजुर्ग उसके गुरूजन एवं संस्कार दाता है। उन्हें अत्यंत सावधानी से बरतना चाहिए क्योंकि वे उनके प्रभावी मार्गदर्शक तत्व और मार्गदर्शक राह हैं।
सारांश : संस्कारों में आसमान से भी ऊँची और सागर तल से भी बहुत गहरी ताकद होती है। कल का भारत अगर दुनिया में सबसे ऊँचे स्थान पर देखने की हम तमन्ना रखते हैं, तो हर माँ-बाप को जिजाऊ माँसाहब और श्याम की आदर्श माता को अपना आराध्य बनाना पड़ेगा। उनके पदचिन्हों को पूज्य मानकर उसी रास्ते से निर्भय होकर अग्रसर होना होना पड़ेगा। तब हर घर-घर की कहानी संस्कारों की नीवं पर पली होगी, हर बच्चा देश के लिए कुर्बान होने पर तुला होगा। आपसी मतभेद मिटेंगे और
‘‘इन्सान का इन्सान से होगा भाईचारा
यही रहेगा हमारे संस्कारों का इशारा!
#आर्यवर्त
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