वीर अभिमन्यु पुत्र परीक्षित

वीर  अभिमन्यु पुत्र राजा परीक्षित

महाभारत के अनुसार परीक्षित अर्जुन के पौत्र, अभिमन्यु और उत्तरा के पुत्र तथा जनमेजय के पिता थे। जब ये गर्भ में थे तब उत्तरा के पुकारने पर विष्णु ने अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र से उनकी रक्षा की थी। इसलिए इनका नाम 'विष्णुरात' पड़ा। भागवत (१, १२, ३०) के अनुसार गर्भकाल में अपने रक्षक विष्णु को ढूँढ़ने के कारण उन्हें 'परीक्षित, (परिअ ईक्ष) कहा गया किंतु महाभारत (आश्व., ७०, १०) के अनुसार कुरुवंश के परिक्षीण होने पर जन्म होने से वे 'परिक्षित' कहलाए।

परीक्षित

बच्चे - जनमेजय
पिता - अभिमन्यु (अर्जुनपुत्र)
माता - उत्तरा

उत्तरा के गर्भ में जब वह बालक ब्रह्मास्त्र के तेज़ से दग्ध होने लगा तब भगवान श्री कृष्ण चन्द्र ने सूक्ष्म रूप से उत्तरा के गर्भ में प्रवेश किया। उनका वह ज्योतिर्मय सूक्षम शरीर अँगूठे के आकार का था। अत्तयंत सन्दर श्याम शरीर तेजोमय, पीताम्बर धारण किये हुये, सवर्णमुकुट से प्रकाशमान हो रहा था। वे चारों भुजाओं में शंख, चक्र, गदा, पद्म धारण किये हुये थे। कानों में कुण्ड्ल तथा आँखें रक्तवर्ण थीं। हाथ में जलती हुई गदा लेकर उस गर्भ स्थित बालक के चारों ओर घुमाते थे। जिस प्रकार सूर्यदेव अन्धकार को हटा देते हैं उसी प्रकार वह गदा अश्वत्थामा के छोड़े हुये ब्रह्मास्त्र की अग्नि को शांत करती थी। गर्भ स्थित वह बालक उस ज्योतिर्मय शक्ति को अपने चारों ओर घूमते हुये देखता था। वह सोचने लगता कि यह कौन है और कहाँ से आया है?

जन्म
उस समय पाण्डव लोग एक महान् यज्ञ की दीक्षा के निमित्त राजा मरुत का धन लेने के लिये उत्तर दिशा में गये हुये थे। उसी बीच उनकी अनुपस्थिति में तथा भगवान श्री कृष्णचन्द्र की उपस्थिति में दस मास पश्चात् उस बालक का जन्म हुआ। परन्तु बालक गर्भ से बाहर निकलते ही मृतवत् हो गया। बालक को मरा हुआ देख कर रनिवास में रुदन आरन्भ हो गया। शोक का समुद्र उमड़ पड़ा। कुरुवंश को पिण्डदान करने वाला केवल एक मात्र यही बालक उत्तपन्न हुआ था सो वह भी न रहा। कुन्ती, द्रौपदी, सुभद्रा आदि सभी महान् शोक सागर में डूब कर आँसू बहाने लगीं। उत्तरा के गर्भ से मृत बालक के जन्म का समाचार सुन कर भगवान श्रीकृष्णचन्द्र तुरन्त सात्यकि को साथ लेकर अन्तःपुर पहुँचे। वहाँ रनिवास में करुण क्रन्दन को सुन कर उनका हृदय भर आया। इतना करुण क्रन्दन युद्ध में मरे हुये पुत्रो के लिये कभी सुभद्रा और द्रौपदी ने नहीं किया था जितना उस नवजात शिशु की मृत्यु पर कर रही थीं। भगवान श्रीकृष्णचन्द्र को देखते ही वे उनके चरणो पर गिर पड़ीं और विलाप करते हुये बोलीं -'हे जनार्दन! तुमने यह प्रतिज्ञा की थी कि यह बालक इस ब्रह्मास्त्र से मृत्यु को प्राप्त न होगा तथा साठ वर्ष तक जीवित रह कर धर्म का राज्य करेगा। किन्तु यह बालक तो मृतावस्था में पड़ा हुआ है। यह तुम्हारे पौत्र अभिमन्यु का बालक है। हे अरिसूदन! इस बालक को अपनी अमृत भरी दृष्टि से जीवन दान दो।'

श्रीकृष्ण द्वारा जीवनदान
भगवान श्रीकृष्णचन्द्र सबको सान्त्वना देकर तत्काल प्रसूतिगृह में गये और वहाँ के प्रबन्ध का अवलोकन किया। चारों ओर जल के घट रखे थे, अग्नि भी जल रही थी, घी की आहुति दी जा रही थी, श्वेत पुष्प एवं सरसों बिखरे थे और चमकते हुये अस्त्र भी रखे हुये थे। इस विधि से यज्ञ, राक्षस एवं अन्य व्याधियों से प्रसूतिगृह को सुरक्षित रखा गया था। उत्तरा पुत्रशोक के कारण मूर्छित हो गई थी। उसी समय द्रौपदी आदि रानियाँ वहाँ आकर कहने लगीं -'हे कल्याणी!तुम्हारे सामने जगत् के जीवन दाता साक्षात् भगवान श्रीकृष्णचन्द्र, तुम्हारे श्वसुर खड़े हैं। चेतन हो जाओ।' भगवान श्रीकृष्णचन्द्र ने कहा - 'बेटी! शोक न करो। तुम्हारा यह पुत्र अभी जीवित होता है। मैंने जीवन में कभी झूठ नहीं बोला है। सबके सामने मेँने प्रतिज्ञा की है वह अवश्य पूर्ण होगी। मैंने तुम्हारे इस बालक की रक्षा गर्भ में की है तो भला अब कैसे मरने दूँगा।' इतना कहकर भगवान श्रीकृष्णचन्द्र ने उस बालक पर अपनी अमृतमयी दृष्टि डालि और बोले - 'यदि मैंने कभी झूठ नहीं बोला है, सदा ब्रह्मचर्य व्रत का नियम से पालन किया है, युद्ध में कभी पीठ नहीं दिखाई है, मैंने कभी भूल से भी अधर्म नहीं किया है तो अभिमन्यु का यह मृत बालक जीवित हो जाये।' उनके इतना कहते ही वह बालक हाथ पैर हिलाते हुये रुदन करने लगा। भगवान श्रीकृष्णचन्द्र ने अपने सत्य और धर्म के बल से ब्रह्मास्त्र को पीछे लौटा कर ब्रह्मलोक में भेज दिया। उनके इस अद्भुत कर्म बालक को जीवित देख कर अन्तःपुर की सारी स्त्रियाँ आश्चर्यचकित रह गईं और उनकी वन्दना करने लगीं। भगवान श्रीकृष्णचन्द्र ने उस बालक का नाम परीक्षित रखा क्योंकि वह कुरुकुल के परिक्षीण (नाश) होने पर उत्पन्न हुआ था।

महाभारत में इनके विषय में लिखा है कि जिस समय ये अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा के गर्भ में थे, द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वत्थामा ने गर्भ में ही इनकी हत्या कर पांडुकुल का नाश करने के अभिप्राय से ऐषीक नाम के अस्त्र को उत्तरा के गर्भ में प्रेरित किया जिसका फल यह हुआ कि उत्तरा के गर्भ से परीक्षित का झुलसा हुआ मृत पिंड बाहर निकला। श्रीकृष्ण को पांडुकुल का नामशेष हो जाना मंजूर न था, इसलिये उन्होंने अपने योगबल से मृत भ्रूण को जीवित कर दिया। परिक्षीण या विनष्ट होने से बचाए जाने के कारण इस बालक का नाम परीक्षित रखा गया। परीक्षित ने कृपाचार्य से अस्त्रविद्या सीखी थी जो महाभारत युद्ध में कुरुदल के प्रसिद्ध महारथी थे।

युधिष्ठिर द्वारा दानपुण्

जब धर्मराज युधिष्ठिर लौट कर आये और पुत्र जन्म का समाचार सुना तो वे अति प्रसन्न हुये और उन्होंने असंख्य गौ, गाँव, हाथी, घोड़े, अन्न आदि ब्राह्मणों को दान दिये। उत्तम ज्योतिषियों को बुला कर बालक के भविष्य के विषय में प्रश्न पूछे। ज्योतिषियों ने बताया कि वह बालक अति प्रतापी, यशस्वी तथा इक्ष्वाकु समान प्रजापालक, दानी, धर्मी, पराक्रमी और भगवान श्रीकृष्णचन्द्र का भक्त होगा। एक ऋषि के शाप से तक्षक द्वारा मृत्यु से पहले संसार के माया मोह को त्याग कर गंगा के तट पर श्री शुकदेव जी से आत्मज्ञान प्राप्त करेगा।

युधिष्ठिर आदि पांडव संसार से भली भाँति उदासीन हो चुके थे और तपस्या के अभिलाषी थे। अतः वे शीघ्र ही परीक्षित को हस्तिनापुर के सिंहासन पर बिठा द्रौपदी समेत तपस्या करने चले गए। परीक्षित जब राजसिंहासन पर बैठे तो महाभारत युद्ध की समाप्ति हुए कुछ ही समय हुआ था, भगवान कृष्ण उस समय परमधाम सिधार चुके थे और युधिष्ठिर को राज्य किए ३६ वर्ष हुए थे। राज्यप्राप्ति के अनंतर गंगातट पर उन्होंने तीन अश्वमेघ यज्ञ किए जिनमें अंतिम बार देवताओं ने प्रत्यक्ष आकर बलि ग्रहण किया था।

शासन प्रबन्ध
पाण्डवों के महाप्रयाण के बाद भगवान के परम भक्त महाराज परीक्षित श्रेष्ठ ब्राह्मणों की शिक्षा के अनुसार पृथ्वी का शासन करने लगे। उन्होंने उत्तर की पुत्री इरावती से विवाह किया। उससे उन्हें जनमेजय आदि चार पुत्र उत्पन्न हुए। उन्होंने कृपाचार्य को आचार्य बनाकर गंगातट पर तीन अश्वमेध यज्ञ किये। उनके राज्य में प्रजा को किसी प्रकार का कष्ट नहीं था।

परीक्षित और कलि युग कथा
एक दिन महाराज परीक्षित ने एक साँड़ देखा, जिसके तीन पैर टूट गये थे। केवल एक पैर शेष था। उसके पास ही एक गाय आँसू बहाती हुई उदास खड़ी थी। एक काले रंग का शूद्र राजाओं की भाँति मुकुट धारण किये हाथ में डंडा लेकर उस गाय और बैल को पीट रहा था। जब महाराज परीक्षित को यह ज्ञात हुआ कि गाय पृथ्वीदेवी है और बैल साक्षात धर्म है तथा उन्हें पीटने वाला शूद्र रूप में कलि युग है, तब उन्होंने उसे मारने के लिये अपने म्यान से तत्काल तलवार खींच ली। शूद्ररूपी कलि काल अपना मुकुट उतार कर महाराज परीक्षित के चरणों में गिर पड़ा। महाराज ने उसे क्षमा करते हुए अपने राज्य की सीमा से बाहर चले जाने के लिये कहा। कलि ने प्रार्थना की - 'महाराज! आप चक्रवर्ती सम्राट हैं । मैं भी आपकी ही प्रजा हूँ। अत: मुझे भी रहने का कोई स्थान देने की कृपा करें। महाराज ने कलि के निवास के लिये जुआ, शराब, स्त्री, हिंसा और स्वर्ण- ये पाँच स्थान निर्धारित कर दिये।

परीक्षित और ॠषि का श्राप
एक दिन महाराज परीक्षित आखेट करते हुए वन में भटक गये। भूख और प्यास से व्याकुल होकर वे एक ऋषि के आश्रम में पहुँचे। समाधिस्थ ऋषि से उन्होंने जल माँगा। ऋषि को राजा की उपस्थिति का ज्ञान नहीं हुआ। राजा ने समझा ऋषि जान बूझकर मेरा अपमान कर रहे हैं। उन्होंने कलियुग से प्रभावित होने के कारण ऋषि के गले में एक मरा हुआ सर्प डाल दिया और अपनी राजधानी लौट आये। ऋषि पुत्र को जब राजा के इस दुष्कर्म का ज्ञान हुआ तब उसने सातवें दिन तक्षक के काटने से राजा की मृत्यु होने का शाप दे दिया। घर पहुँचने पर महाराज परीक्षित को ऋषि कुमार के शाप की बात ज्ञात हुई। ये अपने पुत्र जनमेजय को राज्य देकर गंगातट पर पहुँचे और आगामी सात दिनों तक निर्जल व्रत का निश्चय किया। वहाँ पर वामदेव आदि बहुत-से ऋषि आये। उसी समय घूमते हुए श्रीशुकदेव जी भी वहाँ आ गये। परीक्षित ने उनका विधिवत पूजन किया और उनसे अपनी मुक्ति का उपाय पूछा। शुकदेव जी ने उन्हें सात दिनों तक श्रीमद्भागवत की पावन कथा का श्रवण कराया। श्रीमद्भागवत श्रवण से परीक्षित का मन पूर्णरूप से भगवान में लग गया और सातवें दिन तक्षक के काटने के बाद भी उनकी मुक्ति हो गयी।

इनके विषय में सबसे मुख्य बात यह है के इन्हीं के राज्यकाल में द्वापर का अंत और कलियुग का आरंभ होना माना जाता है। इस संबंध में भागवत में यह कथा है—

एक दिन राजा परीक्षित ने सुना कि कलियुग उनके राज्य में घुस आया है और अधिकार जमाने का मौका ढूँढ़ रहा है। ये उसे अपने राज्य से निकाल बाहर करने के लिये ढूँढ़ने निकले। एक दिन इन्होंने देखा कि एक गाय और एक बैल अनाथ और कातर भाव से खड़े हैं और एक शूद्र जिसका वेष, भूषण और ठाट-बाट राजा के समान था, डंडे से उनको मार रहा है। बैल के केवल एक पैर था। पूछने पर परीक्षित को बैल, गाय और राजवेषधारी शूद्र तीनों ने अपना अपना परिचय दिया। गाय पृथ्वी थी, बैल धर्म ता और शूद्र कलिराज। धर्मरूपी बैल की सत्य, तप और दयारूपी तीन पैर कलियुग ने मारकर तोड़ डाले थे, केवल एक पैर दान के सहारे वह भाग रहा था, उसको भी तोड़ डालने के लिये कलियुग बराबर उसका पीछा कर रहा था। यह वृत्तांत जानकर परीक्षित को कलियुग पर बड़ा क्रोध हुआ और वे उसको मार डालने को उद्यत हुए। पीछे उसके गिड़गिड़ाने पर उन्हें उसपर दया आ गई और उन्होंने उसके रहने के लिये ये स्थान बता दिए—जुआ, स्त्री, मद्य, हिंसा और सोना। इन पाँच स्थानों को छोड़कर अन्यत्र न रहने की कलि ने प्रतिज्ञा की। राजा ने पाँच स्थानों के साथ साथ ये पाँच वस्तुएँ भी उसे दे डालीं—मिथ्या, मद, काम, हिंसा और बैर। इस घटना के कुछ समय बाद महाराज परीक्षित एक दिन आखेट करने निकले। कलियुग बराबर इस ताक में था कि किसी प्रकार परीक्षित का खटका मिटाकर अकंटक राज करें। राजा के मुकुट में सोना था ही, कलियुग उसमें घुस गया। राजा ने एक हिरन के पीछे घोड़े डाला। बहुत दूर तक पीछा करने पर भी वह न मिला। थकावट के कारण उन्हें प्यास लग गई थी। एक वृद्ध मुनि (शमीक) मार्ग में मिले। राजा ने उनसे पूछा कि बताओ, हिरन किधर गया है। मुनि मौनी थे, इसलिये राजा की जिज्ञासा का कुछ उत्तर न दे सके। थके और प्यासे परीक्षित को मुनि के इस व्यवहार से बड़ा क्रोध हुआ। कलियुग सिर पर सवार था ही, परिक्षित ने निश्चय कर लिया कि मुनि ने घमंड के मारे हमारी बात का जवाब नही दिया है और इस अपराध का उन्हें कुछ दंड होना चाहिए। पास ही एक मरा हुआ साँप पड़ा था। राजा ने कमान की नोक से उसे उठाकर मुनि के गले में डाल दिया और अपनी राह ली। (महा., आदि. ३६, १७-२१) मुनि के श्रृंगी नाम का एक महातेजत्वी पुत्र था। वह किसी काम से बाहर गया था। लौटते समय रास्ते में उसने सुना कि कोई आदमी उसके पिता के गले में मृत सर्प की माला पहना गया है। कोपशील श्रृंगी ने पिता के इस अपमान की बात सुनते ही हाथ में जल लेकर शाप दिया कि जिस पापत्मा ने मेरे पिता के गले में मृत सर्प की माला पहनाया है, आज से सात दिन के भीतर तक्षक नाम का सर्प उसे डस ले। आश्रम में पहुँचकर श्रृंगी ने पिता से अपमान करनेवाले को उपर्युक्त उग्र शाप देने की बात कही। ऋषि को पुत्र के अविवेक पर दुःख हुआ और उन्होंने एक शिष्य द्वारा परीक्षित को शाप का समाचार कहला भेजा जिसमें वे सतर्क रहें। परीक्षित ने ऋषि के शाप को अटल समझकर अपने पुत्र जनमेजय को राज पर बिठा दिया और सब प्रकार मरने के लिये तैयार होकर अनशन व्रत करते हुए श्रीशुकदेव जी से श्रीमद् भागवत की कथा सुनी। सातवें दिन तक्षक ने आकर उन्हें डस लिया और विष की भयंकर ज्वाला से उनका शरीर भस्म हो गया। कहते हैं, तक्षक जब परीक्षित को डसने चला तब मार्ग में उसे कश्यप ऋषि मिले। पूछने पर मालूम हुआ कि वे उसके विष से परीक्षित की रक्षा करने जा रहे हैं। तक्षक ने एक वृक्ष पर दाँत मारा, वह तत्काल जलकर भस्म हो गया। कश्यप ने अपनी विद्या से फिर उसे हरा कर दिया। इसपर तक्षक ने बहुत सा धन देकर उन्हें लौटा दिया। देवी भागवत में लिखा हैं, शाप का समाचार पाकर परीक्षित ने तक्षक से अपना रक्षा करने के लिये एक सात मंजिल ऊँचा मकान बनवाया और उसके चारों ओर अच्छे अच्छे सर्प-मंत्र-ज्ञाता और मुहरा रखनेवालों को तैनात कर दिया। तक्षक को जब यह मालूम हुआ तब वह घबराया। अंत को परीक्षित तक पहुँचने को उसे एक उपाय सूझ पड़ा। उसने एक अपने सजातीय सर्प को तपस्वी का रूप देकर उसके हाथ में कुछ फल दे दिए और एक फल में एक अति छोटे कीड़े का रूप धरकर आप जा बैठा। तपस्वी बना हुआ सर्प तक्षक के आदेश के अनुसार परीक्षित के उपर्युक्त सुरक्षित प्रासाद तक पहुँचा। पहरेदारों ने इसे अंदर जाने से रोका, पर राजा को खबर होने पर उन्होंने उसे अपने पास बुलवा लिया और फल लेकर उसे बिदा कर दिया। एक तपस्वी मेरे लिये यह फल दे गया है, अतः इसके खाने से अवश्य उपकार होगा, यह सोचकर उन्होंने और फल तो मंत्रियों में बाँट दिए, पर उसको अपने खाने के लिये काटा। उसमें से एक छोटा कीड़ा निकला जिसका रंग तामड़ा और आँखें काली थीं। परीक्षित ने मंत्रियों से कहा—सूर्य अस्त हो रहा है, अब तक्षक से मुझे कोई भय नहीं। परन्तु ब्राह्मण के शाप की मानरक्षा करना चाहिए। इसलिये इस कीड़ी से डसने की विधि पूरी करा लेता हूँ। यह कहकर उन्होंने उस कीड़े को गले से लगा लिया। परीक्षित के गले से स्पर्श होते ही वह नन्हा सा कीड़ा भयंकर सर्प हो गया और उसके दंशन के साथ परीक्षित का शरीर भस्मसात् हो गया। इस समय परीक्षित की अवस्था ९६ वर्ष की थी।

परीक्षित की मृत्यु के बाद, फिर कलियुग की रोक टोक करनेवाला कोई न रहा और वह उसी दिन से अकंटक भाव से शासन करने लगा। पिता की मृत्यु का बदला लेने के लिये जनमेजय ने सर्पसत्र किया जिसमें सारे संसार के सर्प मंत्रबल से खिंच आए और यज्ञ की अग्नि में उनकी आहुति हुई।

#आर्यवर्त #परीक्षित #महाभारत

Comments

Popular posts from this blog

बाबा बालकनाथ जी का सिद्ध स्त्रोत

मुगलो का हिन्दू महिलाओं पर अमानुषी अत्याचार!!!

शुकर दन्त वशीकरण सिद्धि प्रयोग