संसार में समस्त योनियों में कौन सा शरीर दुर्लभ है

प्रथम प्रश्न संवाद है :-  संसार में समस्त योनियों में कौन सा शरीर दुर्लभ है

प्रथमहिं कहहु नाथ मतिधीरा|

सबसे दुर्लभ कवन सरीरा ||

उत्तर में काक भुशुण्डी कहते है : मनुष्य शरीर सामान कोई शरीर नहीं, सभी जड़ व चेतन इसी शरीर की याचना करते है क्योकि यही शरीर नरक स्वर्ग व मोक्ष की सीढ़ी है इसी से ज्ञान, वैराग्य, भक्ति की प्राप्ति होती है ऐसा शरीर पा कर भी जो लोग भगवान का ध्यान नहीं कर विलास विषयो में लगे रहते है उसका मानव देह पाना व्यर्थ है वे हाथ आई पारस मणि को फेक कर कांच के टुकड़े उठा लेते है

नर वक सम नहिं कवनिउ देहि  | जीव चराचर जाचत तेहि ||

सो तनु धरि हरि भजहिं जे नर | होहिं विषयरत मंदमंदवर ||

गरुड़ का दूसरा व तीसरा प्रश्न है : सबसे बड़ा दुःख और सुख क्या है ?

बड़ दुख कवन, कवन सुख भारी | सोउ संछेपहि कहहु बिचारी ||

काक भुशुण्डी उत्तर देते है कि इस जगत में दरिद्रता जैसा कोई दुख नहीं और संत मिलन जैसा सुख नहीं है

नहिं दरिद्र सम दुख जग माहीं |  संत मिलन सम सुख जग नाहीं ||

गरुड़ की चौथी जिज्ञासा है है की संत और असंत के स्वभाव में भेद क्या है

संत असंत मर्म तुम्ह जानहु | तिन्ह कर सहज सुभाव बखानहु ||

उत्तर मिलता है कि हे पक्षीराज ! संतो का सहज स्वाभाव है तन, मन व वचन से दुसरो का उपकार करना वे भोज के वृक्ष कि तरह दूसरे कि भलाई के लिए दुःख सह लेते है और वे सदा सबके लिए शुभकारी होते है, जबकि अभागे असंत तो हमेशा ही दुसरो को दुःख पहुँचते है

पर उपकार वचन मन काया | संत सहज सुभाउ खगराया ||

संत सहहिं दुख पर हित लागी | पर दुख हेतु असंत अभागी ||

साँप और चूहे की तरह असंत बिना किसी स्वार्थ के ही दूसरो का अहित करते है वे दूसरो कि सम्पदा का विनाश करके स्वयं नष्ट हो जाते है ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार ओले खेती को क्षति पंहुचा कर स्वयं भी नष्ट हो जाते है

खल, बिनु स्वारथ पर अपकारी | अहि मूषक इव सुनु उरगारी ||

पर सम्पदा बिनासि नसाहीं | निमि ससि हति हिम उपल बिलाहीं ||

गरुड़ ने पाँचवाँ व छठा प्रश्न किया, वेदों के अनुसार कौन सा पुण्य सबसे बड़ा और कौन सा पाप घोर पाप है ?

कवन पुण्य श्रुति विदित बिलासा | कहहु कवन अघ परम कराला ||

उत्तर मिला, सबसे बड़ा पुण्य अहिंसा है औए सबसे बड़ा पाप दूसरो कि निंदा है

परम धर्म श्रुति विदित अहिंसा |  पर निंदा सम अघ न गिरिसा ||

महादेव व गुरु का निंदक  मेंढक का हजारो बार सरीर पा कर सिर्फ टर्र टर्र करता है तो ब्राह्मण का निंदक कौए कि योनि में काँव काँव करता है तो संत का उल्लू की जिसके ज्ञान का सूर्य सदा के लिए अस्त होजाता है पर जिसका मुख सबकी निंदा करता है वे चमगादड़ का जीवन पा कर सदा उल्टे टंगे रहते है

गरुड़ का सातवां और अंतिम प्रश्न है, कृपया मानस रोगो को समझा कर बताइए

उत्तर मिला की मोह अर्थात अज्ञान को सभी मानस रोगो की जड़ मानते है, जिससे सभी कष्टकरी दुःख उत्पन्न होते है वाट, पित्त व कफ क्रमशः काम, क्रोध और लोभ है जिससे मनुष्य को प्राणघाती रोग होता है

मोह सकल व्यापिन्ह कर मुला | विनह ते पुनि उपयही बहु सूना ||

काम, वात, कफ, लोभ अपारा | क्रोध पित्त नित छाती जारा ||

मोह असल में दाद, ईर्ष्या खुजली व कुटिलता कोढ़ है  इसी प्रकार अहंकार, दम्भः,क्रमशः डमरुआ, नेहरुआ  रोग  मत्सर और अविवेक दो प्रकार के ज्वर है मानस रोग असंख्य है और इनका उपचार पूरी श्रद्धा से   श्रीराम भक्ति ही है

रघुपति भगति सजीवन मूरी | अनूपान श्रद्धा मति पूरी ||

सब कर मत खगनायक एहा | करिअराम पद पंकज नेहा ||

श्रुति पुरान सब ग्रन्थ कहहिं | रघुपति भगति बिन सुख नाहीं ||

#आर्यवर्त #काक_भूषन्दी

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